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आज़ादी के बाद में हमने



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आज़ादी के बाद में हमने |



देखे सुख के टूटे सपने ||




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सुन्दर तन पर चढी हो बादी | बढ़ी देश में यों  आवादी ||




भवनों और कारखानों के  लिये  खेत की भूमि मिटा दी ||





ऊँची है हर एक इमारत |



कई गुनी बढ़ गयी तिजारत ||




किन्तु ‘संस्कृति’ की काया के अंग लगे हैं देखो दुखने||




आज़ादी के बाद में हमने |



 देखे सुख के टूटे सपने ||१||


   




 खोल दिए हैं भेद चाँद के | वसन उतारे ‘नग्नवाद’ के ||





नोच लिये हैं पर ‘तितली’ के –उच्छ्रंखल पशु ‘भोगवाद’ के ||  



चारों तरफ हैं गान विदेशी |



गरम हवा की तान विदेशी ||




मदिरा मद-रस में डूबे,झूम रहे हम प्रसन्न कितने ||




आज़ादी के बाद में हमने |




देखे सुख के टूटे सपने || २||

 






  काट दिए वन बाग बगीचे | मिटा दिए हैं हरे दरीचे ||







  सुन्दर अंग ‘धारा’ के तन के, ज़हरीले जल से हैं सींचे ||




 जल,थल,वायु सभी प्रदूषित |                       




 मानव-मन औ भाव हैं दूषित ||











कामुकता’,’छल’,’लम्पटता’ से लाज लगी ‘ललना’ की लुटने ||




आज़ादी के बाद में हमने |




देखे सुख के टूटे सपने ||३||

 





शिथिल हुआ कितना अनुशासन | विफल हुआ हर दल का शासन||





और देश की भावुक भोली जनता ऊबी सुन् कर भाषण ||

 

आतंकों के खुले दरिन्दे |



सहमे सहमे हिरण, परिन्दे ||




उनके सरल चित्त को जकडे, ‘भय’ के फन्दे लगे हैं कसने ||




आज़ादी के बाद में हमने |



देखे सुख के टूटे सपने ||४||



अब भी है दुर्नीति भेद की |अब भी कीमत नहीं ‘स्वेद’ की ||




‘छल’,’बल’,’दल’की है मनमानी,बात है कितने बड़े खेद की ||




‘सत्ता’ का भी नशा है बाकी |




‘सुरा’वही है,बदली ‘साकी’ ||




‘तानाशाही’ राज कर रही,’प्रजातंत्र का चोला पहने |



आज़ादी के बाद में हमने |



देखे सुख के टूटे सपने ||५||

  



डाल डाल कर के सम्मोहन|’धर्म’ कर रहे हैं धन- दोहन ||




सब से कहते,”त्याग करो तुम,अपने तन का करते पोषण ||



दैवी संपत्-गद्दी धारी |



पाखण्डों से घिरे पुजारी ||




तन्त्र-मन्त्र,आडम्बर अब भी,ओढ़े हुये ‘विवेक’ पे अपने ||



आज़ादी के बाद में हमने |




देखे सुख के टूटे सपने ||६||






मिल जुल कर हम युक्ति सोचें |इन सब को हम धरें दबोचें ||





ये हैं ‘मानव-धर्म’ के दुश्मन, इनके सभी मुखौटे नोचें ||




इनको करना कर्म सिखायें|




‘सहज मार्ग का मर्म सिखायें||






सचमुच तभी देश में इक दिन,चैन की मुरली लगेगी बजने ||




आज़ादी के बाद में हमने |




देखे सुख के टूटे सपने ||७||





कुछ मुस्तंडेऔघड़ बन कर |घूमा करते देखो घर घर ||





अशिव,अभद्र,वेश धारण कर,फैलाते हैं जन जन में डर ||



खुल्लम खुल्ला देते पशु- बलि |



चुपके चुपके देते नर बलि ||




इनके पापों के बहारों से, ‘धर्म’लगा धरती में धँसने ||




आज़ादी के बाद में हमने |




देखे सुख के टूटे सपने ||८||


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