आज़ादी के बाद में हमने
>> Thursday, 16 August 2012 –
गीत (इतहास की झांकी)
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आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||
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सुन्दर तन पर चढी हो बादी | बढ़ी देश में यों आवादी ||
भवनों और कारखानों के लिये खेत की भूमि मिटा दी ||
ऊँची है हर एक इमारत |
कई गुनी बढ़ गयी तिजारत ||
किन्तु ‘संस्कृति’ की काया के अंग लगे हैं देखो दुखने||
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||१||
खोल दिए हैं भेद चाँद के | वसन उतारे ‘नग्नवाद’ के ||
नोच लिये हैं पर ‘तितली’ के –उच्छ्रंखल पशु ‘भोगवाद’ के ||
चारों तरफ हैं गान विदेशी |
गरम हवा की तान विदेशी ||
मदिरा मद-रस में डूबे,झूम रहे हम प्रसन्न कितने ||
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने || २||
काट दिए वन बाग बगीचे | मिटा दिए हैं हरे दरीचे ||
सुन्दर अंग ‘धारा’ के तन के, ज़हरीले जल से हैं सींचे ||
जल,थल,वायु सभी प्रदूषित |
मानव-मन औ भाव हैं दूषित ||
कामुकता’,’छल’,’लम्पटता’ से लाज लगी ‘ललना’ की लुटने ||
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||३||
शिथिल हुआ कितना अनुशासन | विफल हुआ हर दल का शासन||
और देश की भावुक भोली जनता ऊबी सुन् कर भाषण ||
आतंकों के खुले दरिन्दे |
सहमे सहमे हिरण, परिन्दे ||
उनके सरल चित्त को जकडे, ‘भय’ के फन्दे लगे हैं कसने ||
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||४||
अब भी है दुर्नीति भेद की |अब भी कीमत नहीं ‘स्वेद’ की ||
‘छल’,’बल’,’दल’की है मनमानी,बात है कितने बड़े खेद की ||
‘सत्ता’ का भी नशा है बाकी |
‘सुरा’वही है,बदली ‘साकी’ ||
‘तानाशाही’ राज कर रही,’प्रजातंत्र का चोला पहने |
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||५||
डाल डाल कर के सम्मोहन|’धर्म’ कर रहे हैं धन- दोहन ||
सब से कहते,”त्याग करो तुम,अपने तन का करते पोषण ||
दैवी संपत्-गद्दी धारी |
पाखण्डों से घिरे पुजारी ||
तन्त्र-मन्त्र,आडम्बर अब भी,ओढ़े हुये ‘विवेक’ पे अपने ||
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||६||
मिल जुल कर हम युक्ति सोचें |इन सब को हम धरें दबोचें ||
ये हैं ‘मानव-धर्म’ के दुश्मन, इनके सभी मुखौटे नोचें ||
इनको करना कर्म सिखायें|
‘सहज मार्ग का मर्म सिखायें||
सचमुच तभी देश में इक दिन,चैन की मुरली लगेगी बजने ||
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||७||
कुछ मुस्तंडेऔघड़ बन कर |घूमा करते देखो घर घर ||
अशिव,अभद्र,वेश धारण कर,फैलाते हैं जन जन में डर ||
खुल्लम खुल्ला देते पशु- बलि |
चुपके चुपके देते नर बलि ||
इनके पापों के बहारों से, ‘धर्म’लगा धरती में धँसने ||
आज़ादी के बाद में हमने |
देखे सुख के टूटे सपने ||८||