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गणतंत्र-दिवस((मेरे एक गीत काव्य 'ठहरो मेरी बात सुनो' से)

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
सभी मित्रों को गणतन्त्र-दिवस की पूर्व संध्या की दिल से वधाई !
(१)गणतन्त्र के उपहार | ================
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !
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पाँच वर्षों तक ‘प्रतीक्षा’ में जुड़े ‘अनुबन्ध |
वोट पाने के लिये खाई गई सौगन्ध ||
झूठ-छल से भरा कितना ‘चुनावी बाज़ार’ |
बन चुका ‘राजा-प्रजा का प्रेम’ यों ‘व्यापार’ ||
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!१!!
काटते ‘विशवास’ का ‘सर’ ‘बुद्धिजीवी लोग’ |
और ‘शोषण-जीभ’ से कर ‘रक्त’ का उपभोग ||
हैं वस्त्र के भीतर छुपाये, ‘कपट की तलवार’ |
कर रहे, ‘बलि-पशु’ कटे ज्यों, ‘आपसी व्यवहार’ ||
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!२!!
मिलें ‘राशन’ की जगह, ‘भाषण के मीठे बोंल |
हर ‘तराजू’ रही है ‘अन्याय’ कितना तोल !!


इन ‘रूपधर बहुरूपियों’ से कौन पाये पार !
तोलते जो ‘न्याय’, लेते आज डंडी मार ||
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!३!!
‘व्यवस्था’ की ‘प्रगति-माला’ हो चुकी अब भंग |
है ‘नीति-डोरी’ से जुड़ी ‘प्रतिघात की पतंग’ ||



हुये, ‘वितरक’ ‘लोभ, तृष्णा-रोग’ से बीमार |
भूल कर कर्तव्य, सब के ‘हक़’ रहे हैं मार ||
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!४!!

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विवेकानन्द-महिमा



(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 
मित्रों!अपने महाकाव्य 'विवेकोर्मी' के दूसरे सर्ग के कुछ पद यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ | आप का स्वागत है | 
कल या परसों पूरे महाकाव्य का प्रकाशन प्रारम्भ कर दूंगा || आप के द्वारा उस को अपना 
बनाने की अपेक्षा है |

वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे |
‘मानवता के मूल्य’ मर चले, उन्हें जिलाने आये थे ||
‘धर्म’ निराश हुआ था, उसको आस दिलाने आये थे |
‘परमार्थ का और प्रेम का स्वरस’पिलाने आये थे ||
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बंजर ‘मन की धरा’ हो चली, ऊसर ‘चिन्तन’ हुये सभी |
सूने सूने ‘आचरणों के वन औ उपवन’ हुये सभी ||
 और ‘प्रेरणा के भ्रमरों’ के शान्त ‘गुन्जन’ हुये सभी ||
‘जन गण का विशवास’ जगाने, ‘आशा-वसन्त’ को ले कर-
त्याग तपो मय ‘सुरभि-कणों’ से जग महकाने आये थे ||
‘मन की धरती’ पर ‘प्रज्ञा-हल’ और चलाने आये थे |
‘आशाओं के मरुद्यान’ में, ‘सुमन’ खिलाने आये थे ||
‘आत्मतत्व के विचार सब को, सहज दिलाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||१||
‘पाश्चात्य संस्कृति’ का ‘दुर्दम भोगवाद’ था पनप रहा |
‘अपने लिये संकुचित जीवन’ का विवाद था पनप रहा ||
‘खाओ पियो मज़े लूटो’ का ‘घृणित नाद’ था पनप रहा |
जन जन में ‘तन-वर्ण-भेद’ का दुर्विवाद’ था पनप रहा ||
‘ज्ञान-दीप’ को लिये करों में, उर में ले कर ‘प्रेम अमर’-
वे सब को ‘सभ्यता का पावन पन्थ’ दिखाने आये थे ||
‘मानव में परमात्म तत्व’ है, ‘मंत्र’ सिखाने आये थे |
‘कण कण में बस एक सत्व है’, यही बताने आये थे ||
‘और एकता मानवता है’, हमें जताने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||२||



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