आज़ादी ‘सन्ताप’बन गयी |
>> Wednesday, 15 August 2012 –
गीत(एक परिवाद- गीत)
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समझा था ‘वरदान’ जिसे वह
आज़ादी ‘अभिशाप’बन गयी |
आज़ादी ‘अभिशाप’बन गयी |
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पुण्य सलिल की पावन गंगा,
हुई प्रदूषित, पाप बन गयी |
समझा था ‘वरदान’जिसे वह,
आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||
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कितनी अनियंत्रित मनमानी|सूख गया नयनों का पानी ||
मर्यादा की ‘लक्ष्मण रेखा’, लांघ रहे हैं हिन्दुस्तानी ||
आज़ादी का अर्थ न जाना |
‘आवारगी’ इसे है माना |
‘उच्छ्रंखलता’ आज़ादी की,एक निरर्थक माप बन गयी ||
समझा था ‘वरदान’ जिसे वह,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||१||
हर कोई आज़ाद यहाँ है |दंगा और फ़साद यहाँ है ||
‘अच्छाई’ के साथ ‘बुराई’, करती खुला विवाद यहाँ है ||
बड़ा कठिन है इसे निभाना |
होगा इसको पाठ पढ़ाना ||
त्याग रहित हर भोग-कामना सब के हित सन्ताप बन गयी ||
समझा था ‘वरदान’ जिसे वह,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||२||
माना हम को आज़ादी है | हर वादी का प्रतिवादी है ||
‘स्वर’, ’चिंतन’ पर बोझ नहीं है, फिर भी कितनी बरबादी है ||
कर के कुप्रयास मन माना|
चाह रहे ‘दुर्मन्त्र सिखाना ||
कुत्सित ‘दुष्चिन्ता’ की धारा,’नाश’ का क्रिया कलाप बन गयी ||
समझा था ‘वरदान’ जिसे वह,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||३||
‘हिंसा’ का ‘बाज़ार’ गरम है | ||
बुद्धि, परिश्रम,अनुशासन सब, भूल चुके हर धर्म- कर्म हैं ||
चाह रहे सब भरें खज़ाना |
‘पाप’का बुन कर ताना बाना ||
धर्म हीन ‘धर्मों’ की आँधी,’अधर्म’ अपने आप बन गयी ||
समझा था ‘वरदान’ जिसे वह,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||४||
‘अनाचार’ कितना स्वतंत्र है | कितना घायल ‘प्रजातंत्र’है ||
‘कुर्सी’ के दुर्दम्य ‘पुजारी’,पढते ‘कुनीति’ के कुमन्त्र हैं ||
भूल रहे हैं प्रेम-तराना |
कहते हैं यह ‘राग पुराना’ ||
यह ‘कुनीति’विष के फन वाला, मायावी ‘सुरचाप’ बन गयी ||
समझा था ‘वरदान’ जिसे वह,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||५||
धन की लोभ लालसा ललकी | यों पापों की गागर छलकी ||
सँवरे ‘आज’ किसे है चिन्ता,चिन्ता में डूबे सब कल की ||
भूल गये इतिहास सुहाना |
याद रहा बस, दाम कमाना ||
माँ की ममता, देश-भक्ति सब,मायावी सुरचाप बन गयी ||
समझा था ‘वरदान’ जिसे वह,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||६||