आजादी अभिशाप बन गयी |
आजादी अभिशाप बन गयी |
सुख के लिये जिसे पाया था,वह दुःख का ‘परिमाप’ बन गयी |
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||
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टूटी हैं कोमल आशायें | मैली मैली सभी दिशाएँ ||
धुआँ,बादलों के छाने से,’दिवसों’ में भी घिरी ‘निशायें’||
‘अन्धकार’की है बरजोरी | काले ‘पाप’ की काया गोरी ||
लाज की मारी, ‘पुण्य’ की देवी, बेसुध, मुहँ को ढाँप,बन गयी |
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||१||
‘विद्या’,’कला’,’विकास’ की माया |सब पर पडी दासता-छाया ||
दास हैं सब यश,मान वित्त के,देखो ‘स्वतंत्रता’की माया ||
सब ने ‘मृदुता’ बहुत बटोरी |बाँटीं कटुता भरी निबौरी ||
इनके कृत्य और सब कृतियाँ ,इस जगती को शाप बन गयीं ||
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||2||
तथाकथित सब धर्म-पुजारी|बने हुये बिल्कुल व्यापारी ||
तंत्र,मन्त्र, पाखण्ड-प्रदर्शन,दाँव लगाते बने जुवारी री ||
राजी राजी,जोरा जोरी | जैसे पाई, ‘माया’ जोरी ||
‘आडम्बर’की ढपली पर यों,पाखंडों की थाप बन गयी ||
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||३||
कवि गायक खुद को छलते हैं |गलियों में गाते चलते हैं ||
कलाकार बनाने के खातिर, मदिरा के प्याले ढलते हैं ||
क्या कजरी,क्या श्रावणी,लोरी | या कि लावनी,मधुरी होरी |
सब पर चढी ‘पश्चिमी’ कलई,बेसुर रागालाप बन गयी ||
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||४||
‘‘नारद’ अब नीलाम हो चुके | ‘वृहस्पति’ बदनाम हो चुके ||
नहीं किसी पर कोंई अंकुश ,घोड़े बिना लगाम हो चुके ||
‘शासन’की कर रहे चिरौरी |’समय’, ‘कर्म’की करते चोरी ||
धन की लोलुपता जीवन में,उर दाहक अनुताप बन गयी ||
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||५||
मिथ्या हैं अभिलेख डायरी | बिना भावना शेर-शायरी ||
‘बक’ या ‘काक’ हृदय से लेकिन,’हँस’और ‘पिक’-रूप बाहरी ||
वृत्ति अमौलिक,रीति छिछोरी | चिंतन मन की पाटी कोरी ||
विष की मसि में डूब लेकानी,शोक मरण-परिमाप बन गयी ||
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||६||
‘भ्रष्टाचार’ तीर्थ के पण्डे | रंग विरंगे रच हथकण्डे ||
‘मजबूरी’ को नाच नचाते, ले हाथों,शोषण के डंडे ||
राष्ट्र-संपदा की कर चोरी | बैठे बैठे भरें तिजोरी ||
‘दा-दा’ की पुकार ‘ला-ला’ की,’ला दे ला’ का जाप बन गयी ||
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||७||
किसको दुखडा कौन सुनाये | ‘नियति’ सभी को नाच नचाये |
सब की ‘आज़ादी’ ने सब को, हार कण्टकों के पहनाये ||
सन्तापों की धूप न थोरी | ताप-बृद्धि कर रही निगोरी ||
यों ‘अमृत’ के रस की बूँदें,’विष’ के रस की भाप बन गयीं |
त्यागों बलिदानों की थाती,आज़ादी ‘अभिशाप’ बन गयी ||८||