मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (च)घट-पर्णी(१)भीतर बस धोखा ही धोखा !
>> Tuesday, 30 October 2012 –
गीत ( यथार्थ--गीत )
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(१)भीतर बस धोखा ही
धोखा !
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बाहर से ‘हर माल’ है
चोखा |
भीतर बस धोखा ही
धोखा ||
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नकली सारे ‘सुमन’, ‘चमन’ में |
‘हर सुन्दरता’ बिंधी ‘चुभन’ में ||
‘पाप-चित्र’ अंकित ‘हर मन’ में |
कितनी ‘बाधा’,’शान्त शयन’ में ||
भरी हुई ‘दुर्गन्ध’, ’भवन’ में-
पर ‘सुगन्ध’ से भरा
‘झरोखा’ ||
भीतर बस धोखा ही
धोखा ||१||
कितना ‘छल’ है ‘चहल पहल’ में |
कितना अन्तर ‘आज’ औ ‘कल’ में ||
‘पाप’ भरा, ‘धन’,’जन’,’मन’, ‘बल’ में |
‘स्वार्थ-द्वेष-दलदल’ हर ‘दल’ में ||
‘भय के झोंके’ ‘मलय-पवन’में-
‘युग का हर अन्दाज’
अनोखा ||
भीतर बस धोखा ही
धोखा ||२||
किया ‘राज्य’, सर्वत्र ‘ज़हर’ ने |
‘मृत्यु’ वरी, हर ‘गाँव-शहर’ ने ||
‘दस्तक दी’, ‘हर द्वार’, ‘कहर’ ने |
उगली ‘ज्वाला’, ’प्रीति-लहर’ ने ||
तची ‘अहिंसा’ आज ‘तपन’
में-
मिटा ‘स्नेह’ सब के ‘अपनों’
का ||
भीतर बस धोखा ही
धोखा ||३||
‘विध्वंसों’
ने ली ‘अंगड़ाई’ |
‘देव-देव’
में हुई ‘लड़ाई’ ||
‘दनुजों’
ने वह ‘चाल’ चलाई ||
मिटीं
‘कल्पनायें सुख दायी’ ||
‘घृणा’ घुस गयी, ‘स्नेह-भवन’
में-
गिरा ‘महल सुख के
सपनों का’ ||
भीतर बस धोखा ही
धोखा ||४||
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