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मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (च)घट-पर्णी(१)भीतर बस धोखा ही धोखा !



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 (१)भीतर बस धोखा ही धोखा !

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बाहर से ‘हर माल’ है चोखा |

भीतर बस धोखा ही धोखा ||

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नकली सारे ‘सुमन’, ‘चमन’ में |

‘हर सुन्दरता’ बिंधी ‘चुभन’ में ||

‘पाप-चित्र’ अंकित ‘हर मन’ में |

कितनी ‘बाधा’,’शान्त शयन’ में ||

भरी हुई  ‘दुर्गन्ध’, ’भवन’ में-

पर ‘सुगन्ध’ से भरा ‘झरोखा’ ||

भीतर बस धोखा ही धोखा ||१||


कितना ‘छल’ है ‘चहल पहल’ में |

कितना अन्तर ‘आज’ औ ‘कल’ में ||

‘पाप’ भरा, ‘धन’,’जन’,’मन’, ‘बल’ में |

‘स्वार्थ-द्वेष-दलदल’ हर ‘दल’ में ||

‘भय के झोंके’ ‘मलय-पवन’में-

‘युग का हर अन्दाज’ अनोखा ||

भीतर बस धोखा ही धोखा ||२||
 

किया ‘राज्य’, सर्वत्र ‘ज़हर’ ने |

‘मृत्यु’ वरी, हर ‘गाँव-शहर’ ने ||

‘दस्तक दी’, ‘हर द्वार’, ‘कहर’ ने |

उगली ‘ज्वाला’, ’प्रीति-लहर’ ने ||

तची ‘अहिंसा’ आज ‘तपन’ में-

मिटा ‘स्नेह’ सब के ‘अपनों’ का ||

भीतर बस धोखा ही धोखा ||३||


‘विध्वंसों’ ने ली ‘अंगड़ाई’ |

‘देव-देव’ में हुई ‘लड़ाई’ ||

‘दनुजों’ ने वह ‘चाल’ चलाई ||

मिटीं ‘कल्पनायें सुख दायी’ ||

‘घृणा’ घुस गयी, ‘स्नेह-भवन’ में-

गिरा ‘महल सुख के सपनों का’ ||

भीतर बस धोखा ही धोखा ||४||



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