मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (ग)मीनार(३) प्रगति-खरपतवार
>> Sunday, 14 October 2012 –
गीत {रूपक-आल्हा-गीत(वीर छन्द)}
अनचाहे कुछ ‘खरपतवार’
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‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’
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जैसे किसी ‘फसल’ में पनपें, अनचाहे कुछ ‘खरपतवार’ ||
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ऊँचे ‘महल-हवेली’ हमने पाये,मिला हमें ‘आनन्द’ |
हमने सोचा,‘दुःख-दर्दों’ के लिये हुये हैं ‘रस्ते’ बन्द ||
‘हर्ष-नदी’ में, ‘मनमानी’ के ‘गन्दे नाले’ हैं स्वच्छन्द |
इनके ‘घोर प्रदूषण’ से हैं, हमने पाये ‘दर्द अपार’ ||
‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!१!!
‘चमक-दमक’ की ‘कलई’ चढ़ गयी, दबे हैं
देखो सभी यथार्थ!
भीतर भीतर लोग ‘शकुनि’ हैं, ऊपर ऊपर दिखते ‘पार्थ’ ||
‘परमार्थ की प्रदर्शनी’ है, पनपे ‘उपकारों’ में ‘स्वार्थ’ ||
‘दान’ बिक रहे ‘तराजुओं’ पर, खुले हैं ‘सेवा के बाज़ार’ ||
‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!२!!
‘क्रान्ति-शान्ति’
के प्रयास से यह अपना देश हुआ आज़ाद |
‘आज़ादी की बेलि’ के साथ में,उपजे ‘दंगे और फ़साद’ ||
‘समानता की हर क्यारी’ में,‘जातिवाद के उगे ‘विवाद’ ||
‘स्वराज’ लाने के वे ‘मीठे सपने’ नहीं हुये साकार ||
‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!३!!
‘सत्य-अहिंसा’ में उग आयी, ‘खूनी घटपर्णी
की बेलि’ |
‘मर्यादा’ में, ‘नग्न-वाद’ की उगी है ‘घृणित वासना-बेलि’ ||
‘जाति-धर्म के संगठनों’ की ‘हिंसा वाली ठेलमठेल’ ||
‘मानवता की नौका’ की है, देखो, टूट गयी ‘पतवार’ ||
‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!४!!
‘भारतीयता की फसलों’ में,डाली गयी ‘विदेशी
खाद’ |
‘लूट,जमाखोरी,कर-चोरी’ के उग आये ‘कई विषाद’ |
‘घूस’,’दहेज’ के ‘कंटालों’ के काँटों के चुभते ‘अवसाद’ ||
‘देश-द्रोह, अलगाव-वाद औ उग्रवाद’ के उगे ,’विकार’ ||
‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!५!!
और कहाँ तक तुम्हें गिनाऊं, कितने उगे
‘झाड़-झंकाड़’ !
‘शान्ति-प्रीति-प्रसून’ के ‘पौधों’ का इनसे हो चुका उजाड़ ||
किसे बुलायें, जो इन ‘दुखदाई झाड़ों’ को सके उखाड़ ||
चलो, ’मसीहा’ कोई ढूँढ़ें, या ढूँढ़ें ‘कोई अवतार’ ||
‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!६!!
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'चित्र-पोस्टिंग'सीख कर उसके अभ्यास हेतु कुछ अधिक चित्र पोस्ट कर रहा हूँ | क्रमश: इन्हें कम करूँगा !
इन चित्रों में क्या रखा है,ये तो चित्र पराये हैं |
मन पर वही चित्र छपते हैं,जो निज मन को भाये हैं ||