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मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (ग)मीना(२)प्रगति की मकड़ी( बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ |)

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प्रतीक, एक अच्छा माध्यम है कड़वी सच्चाई को मधुर ढंग से प्रस्तुत करने 
का | 'व्यन्जना', 'समझदार को इशारा काफी' को चरितार्थ करता है |  
 (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार उद्धृत)






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बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ |

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‘भावना’ ने ‘कामना’ को आज घेरा |

लगाया है ‘द्वेश’ ने ‘हर द्वार’ फेरा ||

फँस चुकी है ‘रोशनी’ षड्यन्त्र में-

मीन को ज्यों फाँस ले, ‘कोई मछेरा’ ||

बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||१||


‘स्वार्थ’ का ‘उलझा हुआ सा जाल’ है |

‘प्रेम का व्यवहार’ जग-जंजाल’ है ||

‘लोभ’से है’ ‘स्वार्थ’ का अब मेल यों-

ले चुकी ‘तृष्णा’, ‘नगर’ में अब ‘बसेरा’ ||  

बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||२||



‘चटकती कलियाँ’ झुकी है लाज से |

चौंकती हैं ‘भ्रमर’ की आवाज़ से ||

सहम कर छिपाने को व्याकुल हो गईं-

क्योंकि ‘गुन्जन’ में छुपा है छल घनेरा ||

बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||३||




‘मोहिनी हर प्यार’ की बेकस हुई |

‘बीन की आवाज़’ भी बेबस हुई ||

‘कृतघ्नता’ का ‘जाल’ अब ऐसा बिछा है-

‘पले नागों’ से से डरा कितना ‘सँपेरा’ !!

बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||४||





‘प्राचि की लाली’ रँगी है ‘खून’ से |

‘भरा पश्चिम का गगन’, ‘जूनून’ से ||

‘सरल, नैसर्गिक, सुहानी प्रकृति’ को-  

ठग रही है ‘साँझ’, ठगता है ‘सवेरा’ ||

बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||५||





रेंगता है ‘नक्र’ ‘संसृति-धार’ पर |

हम खड़े हैं ‘खोखली कगार’ पर ||

‘एकता का तन’ कुचल कर ‘दाह’ से-

लड़ रहे हैं, ‘यह हमारा’ ‘यह है तेरा’ ||

बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||६||




‘मीन की स्वच्छन्द गति’ से मत चलो |

‘लहर की आवारगी’ में मत ढलो ||

यदि न चेते, समय रहते,तो तुम्हें-

नाथ लेगा ‘काल का दुर्दम मछेरा’ ||

बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||७||



शब्द-कोष - कृतघ्नता=अहसान फरामोशी | प्राचि(प्राची)=पूरब(पूर्वी संस्कृति)

नक्र=नाका(मगरमच्छ या घड़ियाल) | मीन=मछली |  
   

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