मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (ग)मीना(२)प्रगति की मकड़ी( बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ |)
>> Saturday, 13 October 2012 –
गीत (प्रतीक-गीत)
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प्रतीक, एक अच्छा माध्यम है कड़वी सच्चाई को मधुर ढंग से प्रस्तुत करने
का | 'व्यन्जना', 'समझदार को इशारा काफी' को चरितार्थ करता है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार उद्धृत)
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ |
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लगाया है ‘द्वेश’ ने ‘हर द्वार’ फेरा ||
फँस चुकी है ‘रोशनी’ षड्यन्त्र में-
मीन को ज्यों फाँस ले, ‘कोई मछेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||१||
‘लोभ’से है’ ‘स्वार्थ’ का अब मेल यों-
ले चुकी ‘तृष्णा’, ‘नगर’ में अब ‘बसेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||२||
चौंकती हैं ‘भ्रमर’ की आवाज़ से ||
सहम कर छिपाने को व्याकुल हो गईं-
क्योंकि ‘गुन्जन’ में छुपा है छल घनेरा ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||३||
‘मोहिनी हर प्यार’ की बेकस हुई |
‘बीन की आवाज़’ भी बेबस हुई ||
‘कृतघ्नता’ का ‘जाल’ अब ऐसा बिछा है-
‘पले नागों’ से से डरा कितना ‘सँपेरा’ !!
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||४||
‘भरा पश्चिम का गगन’, ‘जूनून’ से ||
‘सरल, नैसर्गिक, सुहानी प्रकृति’ को-
ठग रही है ‘साँझ’, ठगता है ‘सवेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||५||
हम खड़े हैं ‘खोखली कगार’ पर ||
‘एकता का तन’ कुचल कर ‘दाह’ से-
लड़ रहे हैं, ‘यह हमारा’ ‘यह है तेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||६||
‘लहर की आवारगी’ में मत ढलो ||
यदि न चेते, समय रहते,तो तुम्हें-
नाथ लेगा ‘काल का दुर्दम मछेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||७||
शब्द-कोष - कृतघ्नता=अहसान फरामोशी | प्राचि(प्राची)=पूरब(पूर्वी संस्कृति)
नक्र=नाका(मगरमच्छ या घड़ियाल) | मीन=मछली |
प्रतीक, एक अच्छा माध्यम है कड़वी सच्चाई को मधुर ढंग से प्रस्तुत करने
का | 'व्यन्जना', 'समझदार को इशारा काफी' को चरितार्थ करता है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार उद्धृत)
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बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ |
***$$==$^$==***(&)**$$==$^$==***
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‘भावना’
ने ‘कामना’ को आज घेरा |
लगाया है ‘द्वेश’ ने ‘हर द्वार’ फेरा ||
फँस चुकी है ‘रोशनी’ षड्यन्त्र में-
मीन को ज्यों फाँस ले, ‘कोई मछेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||१||
‘स्वार्थ’
का ‘उलझा हुआ सा जाल’ है |
‘प्रेम
का व्यवहार’ जग-जंजाल’ है ||
‘लोभ’से है’ ‘स्वार्थ’ का अब मेल यों-
ले चुकी ‘तृष्णा’, ‘नगर’ में अब ‘बसेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||२||
‘चटकती कलियाँ’ झुकी है लाज से |
चौंकती हैं ‘भ्रमर’ की आवाज़ से ||
सहम कर छिपाने को व्याकुल हो गईं-
क्योंकि ‘गुन्जन’ में छुपा है छल घनेरा ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||३||
‘मोहिनी हर प्यार’ की बेकस हुई |
‘बीन की आवाज़’ भी बेबस हुई ||
‘कृतघ्नता’ का ‘जाल’ अब ऐसा बिछा है-
‘पले नागों’ से से डरा कितना ‘सँपेरा’ !!
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||४||
‘प्राचि
की लाली’ रँगी है ‘खून’ से |
‘भरा पश्चिम का गगन’, ‘जूनून’ से ||
‘सरल, नैसर्गिक, सुहानी प्रकृति’ को-
ठग रही है ‘साँझ’, ठगता है ‘सवेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||५||
रेंगता है ‘नक्र’ ‘संसृति-धार’ पर |
हम खड़े हैं ‘खोखली कगार’ पर ||
‘एकता का तन’ कुचल कर ‘दाह’ से-
लड़ रहे हैं, ‘यह हमारा’ ‘यह है तेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||६||
‘मीन की स्वच्छन्द गति’ से मत चलो |
‘लहर की आवारगी’ में मत ढलो ||
यदि न चेते, समय रहते,तो तुम्हें-
नाथ लेगा ‘काल का दुर्दम मछेरा’ ||
बुन रही है ‘प्रगति की मकड़ी’, ’अँधेरा’ ||७||
शब्द-कोष - कृतघ्नता=अहसान फरामोशी | प्राचि(प्राची)=पूरब(पूर्वी संस्कृति)
नक्र=नाका(मगरमच्छ या घड़ियाल) | मीन=मछली |
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