मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (घ) (छल-का जाल)(४!फेक न 'अपने छल का जाल'!
>> Sunday, 21 October 2012 –
{आल्हा-गीत(वीर छन्द)}
'पारस्परिक व्यक्तिगत या सार्वजनिक सम्बन्धों में
पार्दार्शिकता के अभाव' की ओर इंगित करती है यह
रचना !! ये 'झूठे और अस्थाई सम्बन्ध' सामाजिक
विघटन का कारण हैं !
(चित्र 'गूगल-खोज' से साभार )
!फेक न अपने छल का जाल!
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दोनों हाथ बटोरा धन
को, ’प्रेम-वित्त’ से तू कंगाल |
‘भोली प्रीति-हिरनियों’
पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!
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भोला चेहरा,मीठी बातें,व्यवहारों में
भरी ‘मिठास |
‘शराफतों का नकाब’ ओढ़े, तू लेता है
सबको फांस ||
‘नये शिकार’ फांसता हर दिन, तिलिस्म
सा तेरा अंदाज़ ||
तेरे ‘नकली प्यारे
मुखड़े’ का होता है अजब कमाल ||
‘भोली
प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!१!!
‘अपराधों’ में पली ‘अमीरी’, तू ‘चलती फिरती दूकान’ |
‘झूठ’ की सेहत पनप रही है,सच तेरा बिलकुल बेजान ||
‘चमक-दमक’ है तेरी कृत्रिम, जुगनू, मैला लिये प्रकाश ||
तू अलबेला चालबाज़
है, छद्म-भरी है तेरी चाल ||
‘भोली
प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!२!!
‘प्रेम-साधना’ तू क्या जाने,तूने सीखा है व्यापार |
‘तेरी नाव’ में ‘छेद हज़ारों’,किसका करेगा ‘बड़ा’ पार ||
तेरा ‘खुदा’ है ‘कुबेर-कारूँ’, बिका हुआ तेरा ‘ईमान’
||
‘महँगे दामों’ में
बिकनी को, ढूँढ़ रहा ‘कोई टकसाल’ ||
‘भोली
प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!३!!
“प्रसून”
तेरी गन्ध है झूठी, ‘कागज़ का तेरा निर्माण’ |
‘मान्यवरों
के गले में पड़ता, खो कर तू अपनी ‘पहँचान’ ||
‘सियासतों
की शतरंजों के मोहरों’ का तू ‘सज्जा-साज’ ||
‘तेरी सजावट’ एक
‘दिखावट’, मत चढ़ तू ‘देवों के बहाल’ !!
‘भोली
प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!४!!
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