मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (घ) (छल-का जाल) (१) छल की गागर( जीवन दर्शन का गीत)
>> Wednesday, 17 October 2012 –
गीत
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'छल' की गागर छलकी रे !
हवा चली जहरीली हल्की हल्की रे !!
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कपट हाथ में
विनाश ढपली |
बजा रही है तृष्णा पगली ||
मिटा 'आज ' को चिंता करती -
देखो कितनी 'कल' की रे !!
छल की गागर छल की रे ||१||
- अरे ततैया सुन्दर लगती |
- नस में डसे तो आग सुलगती||
धोखा नजर न खाये देखो-
खबर रखो पल-पल की रे !!
छल की गागर छ्लकी रे !!२!!
उर के सारे भाव खोल कर |
मन के मोती सब टटोल कर ||
भेद खोलती चुपके चुपके -
नयन से बूँदें ढलकी रे !!
छल की गागर छलकी रे !!३!!
रात रोशनी निगल चुकी है |
ओढ़ कालिमा निकल चुकी है ||
इन जलते बुझते तारों की -
चमक दिखाती झलकी रे !!
छल की गागर छलकी रे !!४!!
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बहुत खूबसूरत गीत |
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'सत्य' को स्वीकारा,यह 'युग'पर उपकार है |
होता 'यथार्थ सोच'ही देश का सुधार है ||