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न् जाने क्या हुआ!


  

देश को मेरे न जाने क्या हुआ !

सुधारों के यत्न मानों हैं धुआँ ||

 

उठ रही आवाज़,आती लौट कर –

व्यवस्थायें बन गयीं अन्धा कुआँ ||

  

चेतनायें सुन्न जैसी हो गयीं –

किस विषैले डंक ने इनको छुआ ?? 

   

सियासत के पीर सब मायूस हैं-
नहीं फलती है कोई इनकी दुआ || 


 
होड़ आपस की घृणित कितनी“प्रसून”-

कोशिशों का खोलते हैं सब जुआ ||    

    

सुशील कुमार जोशी  – (31 July 2012 at 21:21)  

बहुत खूब !

हम भी खेलने की कोशिश करते हैं
पर जीतते कभी नहीं बस हारते हैं

होड़ आपस की घृणित कितनी“प्रसून”-

कोशिशों का खोलते हैं सब जुआ ||

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