Powered by Blogger.

Followers

सामयिकी (४)हृदय में जली हुई ज्वाला !(एक विरोधाभास) काव्य ज्वालामुखी में एक नयी सामयिक रचना


विचित्र बात है कि,एक ओर प्रगति का 'अमन के डंके' पर 'स्वाँग भरा 


नाटक' !दूसरी ओर 'भ्रष्टाचार का दानवीय विकास ! 'अमन' के 'ठंडे 
आवरण' में 'दुराचरणों की  जलती  आग की भट्टी'!!
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 



^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
ज्वालामुखी(एक ओजगुणीय काव्य)में एक नयी

रचना ‘सामयिक परिस्थिति’ में !

<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<< 
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को  पाला ||

<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<< 
‘पीड़ा भरी कराह’ उठ रही, ‘दर्द भरी’ है ‘सिसकी’ |

‘अमन की देवी’ पर ऐसी, ‘बदनज़र’ पड़ी है किसकी ??

‘धीरे धीरे ‘आँसू’ रिसते, ‘नयन’ हो गये गीले-

‘मानवता’ को ‘दर्द’ हुआ ज्यों, दुखा हो कोई ‘छाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ने अपने ‘आँचल’में ज्यों जलती‘आग’ को पाला||१||

 

‘लाज की हिरणी’ तड़फ़ तडफ कर, लेती ‘अन्तिम साँसें’|

डसने को ‘वासना की नागिन’, आई इसे कहाँ से ??

‘संयम’ टूट गया, ‘धीरज’ ने अपनी ‘करवट’ बदली –

लिख न जाये ‘इतिहास’ में ‘खूनी पृष्ठ कोई काला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ने अपने‘आँचल’ में ज्यों जलती‘आग’ को पाला||२||

 

अब नारी की ‘सहन-शक्ति’ की ‘बन्धन-डोरी’ टूटी |

‘अबला’ है वह, ‘बात पुरानी’ हुई है सारी झूठी ||

पाकर ‘अतिशय चोट’ हिली है इस ‘धरती’ की काया’-

लगता है, अब ‘प्रलय का आलम ’ यहाँ पे आने वाला ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ने अपने‘आँचल’ में ज्यों जलती'आग' को पाला||३||

 


 

‘पुरखों ने जो बाग  यहाँ थे सुन्दर कई लगाये |

इनमें धोखे से ‘विष वाले पौधे', कुछ उग आये ||

इनके ‘ज़हरीलेपन’ से हम कितने हुये विकल हैं-

जिसने इनका ‘स्वाद’ चखा है,‘काल’ का हुआ‘निवाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ने अपने ‘आँचल’में ज्यों जलती ‘आग’कोपाला ||४||



‘आग के दरिया’ ने सींचे है, ‘खिले बगीचे सारे’ |

‘चिनगारी’ बन गयीं हैं ‘कलियाँ’, औ “प्रसून” ‘अंगारे’ ||

इस ‘विकास के दौर’ में अन्तर ‘बात’ समझने में है –

हम ने इस को ‘लपट’ कह दिया, तुमने कहा ‘उजाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ने अपने‘आँचल’ में ज्यों जलती‘आग’ को पाला||५||


<<<<<<<<<<<<<<*************>>>>>>>>>>>>

Read more...

सामयिकी (४)हृदय में जली हुई ज्वाला !(एक विरोधाभास) काव्य ज्वालामुखी में एक नयी सामयिक रचना


विचित्र बात है कि,एक ओर प्रगति का 'अमन के डंके' पर स्वान्ग्भारा नाटक !दूसरी ओर 'भ्रष्टाचार का दानवीय विकास ! 'अमन' के 'ठंडे आवरण' में 'दुराचरणों की  जलती  आग की भट्टी'!!



^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
ज्वालामुखी(एक ओजगुणीय काव्य)में एक नयी

रचना ‘सामयिक परिस्थिति’ में !

<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<

बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल ’ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ कोपाला ||

<<<<<<<<<<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>


‘पीड़ा भरी कराह’ उठ रही, ‘दर्द भरी’ है ‘सिसकी’ |

ऐसी, ‘अमन की देवी’ पर, ‘बदनज़र’ पड़ी है किसकी ??

‘धीरे धीरे ‘आँसू’ रिसते, ‘नयन’ हो गये गीले-

‘मानवता’ को ‘दर्द’ हुआ ज्यों, दुखा हो कोई ‘छाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !


‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||१||



 

‘लाज की हिरणी’ तड़फ़ तडफ कर, लेती ‘अन्तिम साँसें’ |

डसने को ‘वासना की नागिन’, आई इसे कहाँ से ??

‘संयम’ टूट गया, ‘धीरज’ ने अपनी ‘करवट’ बदली –

लिख न जाये ‘इतिहास’ में ‘खूनी पृष्ठ कोई काला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||२||








अब नारी की ‘सहन-शक्ति’ की ‘बन्धन-डोरी’ टूटी |

‘अबला’ है वह, ‘बात पुरानी’ हुई है सारी झूठी ||

पाकर ‘अतिशय चोट’ हिली है इस ‘धरती’ की काया’-

लगता है, अब ‘प्रलय’ यहाँ पर निश्चय आने वाला ||



बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||३||



 



‘पुरखों ने जो बाग  यहाँ थे सुन्दर कई लगाये |

इनमें धोखे से ‘विष वाले पौधे', कुछ उग आये ||

इनके ‘ज़हरीलेपन’ से हम कितने हुये विकल हैं-

जिसने इनका ‘स्वाद’ चखा है, ‘काल’ का हुआ ‘निवाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||४||




 


‘आग के दरिया’ ने सींचे है, ‘खिले बगीचे सारे’ |

‘चिनगारी’ बन गयीं हैं ‘कलियाँ’, औ “प्रसून” ‘अंगारे’ ||

इस ‘विकास के दौर’ में अन्तर ‘बात’ समझने में है –

हम ने इस को ‘लपट’ कह दिया, तुमने कहा ‘उजाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||५||




<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
     

Read more...

About This Blog

  © Blogger template Shush by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP