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सिला दिया तुमने

अवाम को ऐसा सिला दिया तुमने |
उसूलों को जिन्दा जला दिया तुमने ||

दिखा कर दही की मटकी लुभाया यों-
धोखे से चूना खिला दिया तुमने ||

खुशनुमा नक्काशी, ज़रतारी की आड़ में -
काँटों का पैरहन सिला दिया तुमने ||

छिडका जिन्होंने तेज़ाब फसलों पर-
शहद उन दरिंदों को पिला दिया तुमने ||

खून से जिन्होंने सींचा था गुलशन -
अहसान उन सब का भूला दिया तुमने ||

हलाल के लहू से तुम्हें रश्क यों था -
अधमरी जोंकों को जिला दिया तुमने ||

पाई जो कुर्सी,किस्मत का करिश्मा था-
चमड़े का सिक्का चला दिया तुमने ||

करते हैं तारीफ आपस में जम कर-
ऊंटों को गधों से मिला दिया तुमने ||

"प्रसून" ये पत्थर हैं,गूँगे हैं,बहरे हैं -
इनसे क्यों शिकबा, गिला किया तुम

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अपना दिल मैं तुझको दे दूँ |


अपना दिल मैं तुझको दे दूँ ,यह मन तेरे नाम करूँ |
इन नयनों में उमड़े भीगे सावन तेरे नाम करूँ ||

क्षक्ष
एक आध पल छन की छोडो, इस पर तो हकतेरा है-
तू चाहे तो सारी उमरिया,जीवन तेरे नाम करूँ ||
आशाओं के फूल खिला दूँ,इस निराश वीराने में -
महके फूल तितलियों वाले, मधुवन तेरे नाम करूँ ||

तुम तपते क्यों विरह धुप के, ताप भरे सन्तापों में -
प्यास बुझाती गागर जैसे ये घन तेरे नाम करूँ ||
मेरी चाहत बनी गुजरिया, तेरा प्यार कन्हैया सा -
"प्रसून"अपनी खुशी की वंशी की धुन तेरे नाम करूँ ||







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छल की गागर छलकी रे


छल की गागर छलकी रे|
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
छल की गागर छलकी रे |
हवा चली जहरीली हल्की हल्की रे ||
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कपट हाथ में विनाश ढपली |
बजा रही है तृष्णा पगली ||
मिटा 'आज ' को चिंता करती -
देखो कितनी 'कल' की रे ||
छल की गागर छल की रे ||१||
अरे ततैया सुन्दर लगती |
नस में डसे तो आग सुलगती ||
धोखा नजर न खाये देखो-
खबर रखो पल-पल की रे ||
छल की गागर छ्लकी रे ||२| |

उर के सारे भाव खोल कर |
मन के मोती सब टटोल कर ||
भेद खोलती चुपके चुपके -
नयन से बूँदें ढलकी रे ||
छल की गागर छलकी रे ||३||
रात रोशनी निगल चुकी है |
ओढ़ कालिमा निकल चुकी है ||
इन जलते बुझते तारों की -
चमक दिखाती झलकी रे ||
छल की गागर छलकी रे||४||


कुछ मुक्तक
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(१)
कला के कलाकन्दमें कपट-कंकड खटकते हैं |
निगलना मुश्किल, ये गले में अटकते हैं ||
राजनीतिक दंगल में कुछ मल्ल ऐसे भी हैं -
जो अपने ही अनुगतों को उठा कर पटकते हैं ||
(२)

छल,प्रपंच,कपट की वाएं जब चलती हैं |
प्रीति के मधुवन में, वे हमें बहुत खलती हैं ||
सहना बहुत मुश्किल, इंसानियत को लगता है-
हैवानों को मक्खनी रोटियां जब मिलती हैं||

(३)

विचार जो, ज्ञानप्रद मनोहर होते हैं |
वे ही इतिहास की धरोहर होते हैं ||
नीरस मरुस्थल सींच वही सकते हैं -
जिनके मन स्नेह के सरोवर होते हैं ||

(४)

वह घर तवाह नहीं वीरान होता है |
शानीचर ही उसका निगह्वान होता है||
काना बाँट करता जो फ़र्क की तराजू से -
जिस घर का बुजुर्ग बेईमान होता है ||

(५)
इतना क्यों आप हमें देखिये सताते हैं ?
बगल में बिठा कर हम आप को पछताते हैं ||
आपको सौंपा हमने हाशिया था लेकिन -
आप पूरे कागज़ पर हक़ अब जताते हैं ||
( ६)

जिनके नयनों की छागल में पानी नहीं है |
आयी रीति प्रीती की निभानी नहीं है ||
कैसा भी हो ऐसा व्यक्ति, हिन्दुस्तान में -
मुझको लगता शुद्ध हिन्दुस्तानी नहीं है||





























































































































































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देखो

गुलों को बस खुश नजर से देखो |

कभी भी मत बद नजर से देखो ||

इश्क के भी आज कल मुअल्लिम होते -

खुल गये ऐसे भी मदरसे देखो||

तुमने पाईं तुम्हारी ही होंगीं -

थालियाँ परोसीं सब्र से देखो ||

जवानी दिलों के जोश में होती -

मत मुझे मेरी उम्र से देखो ||

किधर जाए ,चंचल शोख यह उड़ कर -

इश्क क्यों तितली के पर से देखो ||

जरा सी मुश्किल थी पार हो जाती -

लौट क्यों आये सफर से देखो ||

"प्रसून" की आँख में नमी तिर आयी-

गैरों के गम के असर से देखो ||







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वो लोग

देखो तो कितने गए, बीते हैं वो लोग|
केवल अपने लिये ही, जीते हैं जो लोग ||
क्या जन जन की प्यास को, बुझा सकेंगे आज-
लुढकी गागर की तरह, रीते हैं जो लोग ??

मीठे मीठे शहद से, बोल रहे जो बोल|
भीतर तीखी मिर्च से, तीखे हैं जो लोग ||



कहते हैं गण-तन्त्र के, हम हैं पालनहार |
रक्त पराया जोंक सा, पीते हैं जो लोग ||
'गति लायेंगे ये कभी', हमको है सन्देह |
दौड़ में टंगड़ी मार कर, जीते हैं जो लोग ||

कर देते हैं ये उसे,बिल्कुल ही कंगाल|
"प्रसून"" जिसके घाव को, सीते हैं जो लोग ||







































































































































































































































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जानवर की भूख









जानवर की भूख में बड़ी जान होती है |
इसे बस, खुराक की ही पहँचान होती है ||

मिले,या न मिले कभी औरों को खाने को-
खुद भर पेट खाने में ही शान होती है ||

कुम्भकर्णी भूख जब नींद से जगती है |
बस्ती इंसानों की परेशान होती है ||

जितना खिलाता है सौ गुना बसूलता है-
अब दानी की दान की दूकान होती है ||

इनाम, नाम,ख्याति न मिले, तो मर जाती है-
-
इनकी दया कितनी लचर, बे जान होती है !!

खाने से बढ़ कर तो सभी को खिलाना है -
यह मानवों की भावना महान होती है ||

'आज है खाने को,कल के लिये बटोर लो' -
"प्रसून"यह सोच कितनी नादान होती है ||


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एक छोटी सी गजलिका
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अँधेरा हर बस्ती में चिराग ले कर जाइये |
हिम शिला सी भावनाएं, आग ले कर जाइए ||

'निराशा' की चोटओं से मन की बीन टूटी है -
आशाओं के नये नयेराग ले कर जाइए ||

घृणा की दुर्गन्ध रची बसी इनके प्राणों में -
बस, प्यार के "प्रसून"का पराग ले कर जाइये ||
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एक् नीति गज़ल
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नियम, संयम,धर्म का जो अखंडित होता है |
प्रेम, ज्ञान भक्ति से जो सुमंदित होता है ||

किसी देश, जाति या धर्म का हो चाहे-
हर एक व्यक्ति ऐसा,बस पण्डित होता है ||

ज्ञान का परिधान ओढ़े 'अज्ञान' छलता है-
अवश्य कभी 'नियति से वह दण्डित होतम है ||

करेगा बिझूका क्या खेत की रखवाली -
ममोहक ठाठ भीतर विखण्डितहोता है ||

'प्रसून' एक चिनगारी का कण तो नगण्य है-
बना ज्वाल हवाओं से प्रचंडित होता है ||
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लिखा जाता है (एक गजल)
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हर देश का लहू से, इतिहास लिखा जाता है |
काँटों की कलम से, मधुमास लिखा जाता है ||

उजाले हृदय-पटल पर, बलिदान की स्याही से-
निष्ठा,प्रेम, आस्था, विशवास लिखा जाता है ||

करते नहीं कोरे भाषण, देश की तरक्कियाँ-
पसीने की स्याही से विकास लिखा जाता है ||

घर के सारे लोग एक होते तो मन पर -
औरों के दर्दों का अहसास लिखा जाता है||

बढ़ जाता है प्रेम और घृणा मिट जाती है-
तो सभी के नाम पर 'उल्लास' लिखा जाता है||

यादों के झरोखों से महकी पवन आती है-
चेतना पर 'अतीत' का आभास लिखा जाता है ||

पतझर की पीड़ा को पीता जब जी भर तो-
'प्रसून' की पंखुड़ियों में 'हास' लिखा जाता है ||
































































































































































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