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"गरम हुआ आसमाँ में, आज आफताब कुछ." (देवदत्त "प्रसून")

गरम हुआ आसमाँ में, आज आफताब कुछ ।
झुलस गये हँसते हुए, बाग में गुलाब कुछ ।।

किसके हक की कितनी तुमने कहाँ कीं चोरियाँ ।
दिखा करके मीठे आम,बाँट दीं निबौरियाँ ।।
अपनी बही खोल कर , दो हमें हिसाब कुछ ।।1।।

माना कि गुलामियों की ढीली हुईं डोरियाँ ।
नींद में हम डूब गये सुन के मीठी लोरियाँ ।।
ठीक है कि मन को कसे, कम हुए कसाव कुछ ।।2।।

उलझनों की मकडि़यों ने बुन लिये हैं जाल कुछ।
माँगा था सभी ने करके जल रहे सवाल कुछ ।।
पर खुलूस हो न सके, गुम हुए जबाब कुछ ।।3।।

हम तो जिसके पास गये, वह नशा किये मिला ।
इस नशे ने तोड. दिया, है हदों का सिलसिला ।।
इनके मन पे चढ. गई , दर्प की शराब कुछ ।।4।।

है सब्र आज मन में दर्द इस तरह उछालता ।
बाँध देखो टूट करके, बाढ़ लाये क्या पता ।।
धीरे धीरे हो रहे देखिये रिसाव कुछ ।।5।।

हाँ आ न सके लौट करके,ये गये कि वे गये ।
जो कबूतर छोड़ करके,अपनी काबुकें गये ।।
मर गये विदेश में हैं, मिल गये उकाव कुछ ।।6।।

हाँ, सच '' प्रसून''दब गये हैं देखिये जमीन में ।
उफ इतने भार लाद गये, आजकल यकीन में ।।
इन सफेद हाथियों के पाँव के दबाव कुछ ।।7।।

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