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न् जाने क्या हुआ!


  

देश को मेरे न जाने क्या हुआ !

सुधारों के यत्न मानों हैं धुआँ ||

 

उठ रही आवाज़,आती लौट कर –

व्यवस्थायें बन गयीं अन्धा कुआँ ||

  

चेतनायें सुन्न जैसी हो गयीं –

किस विषैले डंक ने इनको छुआ ?? 

   

सियासत के पीर सब मायूस हैं-
नहीं फलती है कोई इनकी दुआ || 


 
होड़ आपस की घृणित कितनी“प्रसून”-

कोशिशों का खोलते हैं सब जुआ ||    

    

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कुछ मुक्तक (मनोविचार)

             

                              (१)

 दौलत से कहीं कोई अमीर होता है | 

 अमीर वह, जिसका कोंई ज़मीर होता है ||

लोहा तो लोहा है, चाहे जो बना लो-

लोहा जो पिट जाये,शमशीर होता है ||


अँधेरे का जाल जब इतना विकराल है |
फिर हमारे हाथ में क्यों नहीं मशाल है ||
शोषण से संघर्ष होते रहे वर्षों तक -
आज भी जोंकें क्यों इतनी बहाल हैं ??

  

  

नियम, संयम, धर्म का जो अखण्डित होता है |

प्रेम, ज्ञान ,भक्ति से जो सुमण्डित होता है ||

किसी भी जाति, धर्म या देश का हो चाहे - 

हर एक ऐसा व्यक्ति बस, पण्डित होता है ||

     

       
      

जानवर की भूख में बड़ी  जान होती है |

इसे बस खुराक की ही पहँचान होती है ||

औरों को कभी खाने को मिले या न् मिले-

खुद भर पेट खाने में, बड़ी शान होती है ||

 

खोल खोल तू खोल रे भैया ,तू मन के दरवाज़े खोल !

भेद छिपाए मन की बातें,बजा के गाजे बाजे खोल !!

"प्रसून" पपड़ी बन जाने दे, वरना ये रिस जायेंगे-

कसक रहे हैं, मत खरोंच कर अपने घाव ये ताज़े खोल !!

      

पिशाच पिशाच को यार कहते हैं |

मेंढक कुयें को संसार कहते हैं ||

कटैया की फ़सल उगाने वाले-

गेहूँ को खरपतवार कहते हैं ||

  

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