जून २०१३ के बाद की गज़लें (४) चोट
>> Monday, 1 September 2014 –
गज़ल
(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
‘आग’ लगी है दशों दिशाओं, ‘धुआँ’ घुटा कितना ‘दमघोंट’ !
‘अनाचार-आघात’ जटिल हैं, कैसे सहेगी धरती ‘चोट’ !!
कहते हैं ‘काली कमली’ पर, चढता कोई ‘रंग’ नहीं-
फिर कैसे ‘बदरंग’ हो गये, कुछ ‘इंसाफी
काले कोट’ ??
‘उम्मीदों’ का एक ‘खज़ाना’, धरा
हुआ बेकार यहाँ -
चुन कर कई संजोये ‘सिक्के’, हर ‘सिक्के’ में कितना खोट
!!
आज कहाँ इन्साफ गरीबों के ‘दामन’ में सजता है ?
‘न्याय की नगरी’ में पाओगे, न्याय के नाम पे ‘लूट-खसोट’ ||
गहरी ‘सरिता’, ‘नैया’ जर्जर, दूर कहीं ‘पतवार’ पड़ी-
तैर के कैसे पार करें हम, लदी हुई ‘पापों की मोट’ ||
प्यार की मैं उम्मीद करूँगा, किससे बोलो कहाँ कहाँ ?
आज ‘प्रेम’ के ‘बाज़ारों’ में, ‘इंसानों’ से बढ़ कर ‘नोट’ ||
“प्रसून” कितने खिले हैं सुन्दर, गन्ध का हुआ अनादर है-
विकास के ये मानव-पुतले, ‘बेदिल’ हैं जैसे ‘रोबोट’ ||
प्रसून साहब सारा परिवेश दिया पदार्थ जगत का इन अशआरों में मनोहर आभार टिप्पणियों का।
बहुत सुंदर वाह ।