पुरानी रचनाएँ (1985 की कुछ रचनायें) (1) गर्मी (क) खो रही है अरुणिमा !
>> Friday, 5 September 2014 –
अकविता (छन्द-मुक्त)
(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

कहते हैं, करोड़ों वर्ष पूर्व-
कहते हैं, करोड़ों वर्ष पूर्व-
यह ब्रह्माण्ड आग का एक पिण्ड था,
धधकता हुआ, ज्वलनशील गैसों का परितप्त गोला !
मात्र एक ज्वालामुखी शोला !!
उसकी वह भीषण गर्मी कहाँ गयी ?
कहाँ गयी वह ज्वाला ??
यदि पहले उजाला ही उजाला था !
कुछ भी नहीं काला था ||
फिर यह रात आयी कहाँ से ??
माना कि,कुछ भाग गर्मी का, प्रकाश का पा लिया
सूर्य ने,
और कुछ नक्षत्रों ने,
किन्तु आधे भाग में क्यों अन्धेरा है ?
कई स्थलों पर क्यों ठंडक है ??
ब्रह्माण्ड को किस परिवर्तन ने घेरा है ??
सृजन की
विडम्बना ने वह गर्मी और वह उजाला मलिन कर
के,
प्राणियों के वैर-हिंसा, क्रोध, प्रतिहिंसा, काम
और वासना, छल और दम्भ,
कपट और द्वेष और डाह |
कलुषता के प्रवाह आदि में भर दिया !
उजाले और गर्मी के लोप होने से !
ज्योति और ताप के खोने से !!
‘रात’ ने जन्म लिया |
तभी तो घिर रही है कालिमा !
खो रही है पुण्य की अरुणिमा !!