जून २०१३ के बाद की गज़लें (३) खोट
>> Wednesday, 3 September 2014 –
गज़ल
(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
छल-फ़रेब के लगे हैं पत्थर,
वतन के दिल पर लगी है चोट |
मरहम हैं लाचार जतन के, हम को खलती यही
कचोट ||
हम किस पर विशवास करें अब,
जिम्मेदारी किस को दें-
रंग बदलती
गिरगिट जैसी, राजनीति में अनगिन खोट
!!
कितना ‘धुआँ’ फरेबों
का है, ‘चालबाजियाँ’ सुलग रहीं-
घुटन भरी है कितनी इस में,
बातावरण हुआ दमघोट ||
सरेआम बाज़ार में उस का चिथड़े चिथड़े जिस्म हुआ -
शायद उस ने चबा लिया बम, समझा था जिसको अखरोट ||
‘भोली कोमल सतह’ के नीचे
की ज़मीन
की बात न कर-
‘वक्त की चट्टानें’ यदि
करवट बदलेंगी होगा ‘बिस्फोट’ ||
चन्द दिनों
के बाद चुनाबी
मेले होंगे जहाँ
तहां-
बहुरूपिये सियासत
वाले, ठगेंगे ‘भोलेपन’ की ओट ||
बस्ती बस्ती ‘सत्ता-पद’ के कुछ ‘व्यापारी’ आयेंगे-
‘कुर्सी के
सौदागर’ लेकर आयेंगे थैलों में
नोट ||
सब्ज़ बाग तुमको दिखला कर,
डालेंगे ‘लालच का जाल’-
कभी किसी के ‘जाल’ में फँस
कर, तुम न बेचना अपना वोट !!
“प्रसून” शतरंजों की
चालें, ‘धर्म धुरन्धर’ कई चले-
दौर चुनावी ‘बिसात’ से हैं,
जनता बनी है इन की ‘गोट’ |
God bbless