जून 2014 के बाद की गज़लें/गीत (7) ओ धरती के दुश्मन सुन ! (‘ठहरो मेरी बात सुनो !’ से )
>> Friday, 26 September 2014 –
गीत
(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
ताल पाट कर, बाग काट कर, भवन बनाने वाले सुन !
धरती के सुन्दर-सुन्दर परिधान मिटाने वाले सुन !
तू अपने वजूद के ख़ातिर |
बना
हुआ है कितना शातिर !!
केवल अपने लिए सोचता, औरों
की अब चिन्ता क्या !
धरती की आबरू लूट, अस्तित्व बढ़ाने वाले सुन !!
धरती के सुन्दर-सुन्दर
परिधान मिटाने वाले सुन !!1!!
तेरे पापों के कलंक से |
रुधिर बहा है
‘धरा-अंक’ से ||
तू कष्टों का बना पिटारा,
बाँट रहा है सबको दुःख !
‘पाप-भाव’ तेरा बिच्छू सा, डंक चुभाने वाले सुन !
धरती के सुन्दर-सुन्दर
परिधान मिटाने वाले सुन !!2!!
सदाचार का तू है दुश्मन !
अनाचार
से भरा तेरा मन !!
है पापों की बड़ी पोटली,
तेरे सर पर लदी हुई !
दुराचार को अपने कालुषित अंग लगाने वाले सुन !
धरती के सुन्दर-सुन्दर
परिधान मिटाने वाले सुन !!3!!
तेरे बोये अंगारों से !
ज्वाल
झरी है श्रृंगारों से !!
तूने उगला आग का दरिया,
अग्निजिव्ह दानव बन कर !
सुलग रहीं तेरी करतूतें, अमन जलाने वाले सुन!
धरती के सुन्दर-सुन्दर
परिधान मिटाने वाले सुन !!4!!
“प्रसून” वाले हर उपवन में
|
सुख से महके हर आँगन में ||
ज़हर भरी सुइयाँ तेरे
व्यवहारों में हैं छुपी हुई !
चुपके-चुपके चुभने वाले शूल उगाने वाले सुन !
धरती के सुन्दर-सुन्दर परिधान मिटाने वाले सुन
!!5!!