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ज़लजला(एक भीषण परिवर्तन) ((क)वन्दना (४) राष्ट्र-वन्दना ! मेरे भारत देश ! (ब)



  ! मेरे भारत देश !




मेरे भारत देश,’पिता’ का,तुमने सब को ‘प्यार’ दिया है |
‘माता’ बनकर,’ममता’ बाँटी,कितना मधुर दुलार दिया है ||
खाकर ‘अन्न’,’दूध सा जल’पी,’साँसों’ में भर ‘महक हवा की’-
भूल गये अहसान तम्हारा,’पूतों में है ‘लाज’ न बाकी ||१||


तुमसे बढ़ कर,’अपनी सत्ता,कुर्सी औ पद,मान को समझा |
‘स्वार्थ-वित्त,कंचन,चाँदी’ से,कम ‘निष्ठा-ईमान’ को समझा ||
‘फैशन’औ ‘सुखवाद’ को ईश्वर से बढ़ कर सब ने पहंचाना | 
आपस के सम्बन्धों को तज,’भौतिक सुख’ को ऊपर माना ||२||


 ‘तड़क भड़क’ औ चटक मटक’ ही बने ‘सभ्यता के पैमाने’ |
‘यौन-पिपासा’,’काम-वासना’ अपने पाँव लगे फैलाने ||
‘मृग-तृष्णा’ में डूबे सारे ‘पुत्र तुम्हारे’ हो दीवाने ||
तुम्हीं बताओ ‘देश हमारे’,आये ‘कौन’ इन्हें समझाने !!३||


‘बहुमंजिली इमारत वाले,हैं अपने को ‘ईश्वर’ कहते |
‘पूँजी के इन पुजारियों’ के ‘अत्याचार’,’झोंपड़े’ सहते ||
‘धन की प्यास’ बढ़ाई इतनी,’बेच रहे’,’अपने पूतों’ को |
धिक्कारो ‘दहेज के भूखे’,पामर इन ‘विनाश-दूतों को !!४!!


  

हलचल’ मची हुयी, ‘शान्ति के घर के सब स्तम्भ’ हिले हैं |
‘लालच के इन तूफ़ानों’ में, हम को केवल ‘दर्द’ मिले हैं ||
‘लोभ भरी तृष्णा’ तुम को’ ‘जंजीरों’ में ‘जकड लिया’ है |
नागरिकों ने पुन: ‘दासता के कुपन्थ’ को ‘पकड़ लिया’ है ||५||


कुछ ‘पूँजी के दास' कई हैं, ‘गुलाम तन की सुन्दरता के’ |
‘पिंजड़े’ में हैं ‘बन्द’, ‘संकुचित’ ‘ह्रदय’ हुये हैं ‘इस जनता’ के ||
राष्ट्र-देव,’गुरु’ अखिल जगत के,तुम ऐसी कुछ ‘युक्ति’ चलाओ |
‘ईश्वर’ या ‘अवतार-पयम्बर’ इस धरती पर पुन: बुलाओ ||६||


‘राम-कृष्ण’ या ‘बुद्ध’, ‘मुहम्मद’, ‘ईसा’, ‘नानक’ आदि पुकारो !
‘कबीर’,’ग़ालिब’,’गान्धी’बन् कर,अपना बिगड़ा रूप सुधारो !!   
‘त्याग भोग से बड़ा’ पाठ यह, सब को फिर से आज पढाओ !
केवल भौतिक नहीं, ‘आत्मिक,प्रगति-शिखर’ पर हमें चढ़ाओ !!७||


‘प्रेम-नीर’,’सन्तोष-उर्बरक’ से “प्रसून” कुछ सुभग खिलाओ !
तज कर घृणा,बैर ‘हर मानव’ से ‘मानव’का ह्रदय मिलाओ !!
तब कहलाओ ‘गरिमा वाले देश’ धारा पर सब से आगे |
‘युग-सुधार’ हो,और ‘कलुषता’ देश छोड़ कर ‘बाहर भागे’ ||८||
         
 
        
 

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