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ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल(४) धधक रहा है कोना कोना

 
सारे चित्र साभार गूगल खोज से उद्धृत

 

 धधक रहा है कोना कोना


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निष्ठुर बन कर खेल रही है, 

‘आग’,‘नाश का खेल घिनौना’

धधक रहा है कोना कोना ||


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|| ‘रस-प्रवाह’अब लगा ठहरने,

जल-जल पूरी उम्र है काटी |

निष्ठुर बन् कर खेल रही है, 

‘आग’ ,‘नाश का खेल घिनौना’||

धधक रहा है कोना कोना ||


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कहीं उदर में ‘जठर-अनल’ है|

कहीं हृदय में ‘काम-अनल’ है ||

करती कहीं ‘वासना’छल है |

‘हिंसा’जलती कहीं प्रबल है ||

लगी ‘प्रकृति’में ‘ज्वाला’भरने |

‘शान्त चिन्तन की परिपाटी’-

‘एक दाह-दुःख’ झेल रही है ||

कितना दुष्कर जगना सोना |

पूज रहा ‘युग’,‘चाँदी-सोना’ ||

निष्ठुर बन कर खेल रही है, 

‘आग’ ,‘नाश का खेल घिनौना’||

धधक रहा है कोना कोना ||१||
.       


झुलसा ‘इच्छाओं का कमल’ है |

तप्त हुआ ‘नयनों का जल’ है ||

दूषित हुआ ‘प्रेम का जल’ है |

'प्रकृति के नयना' हुये सजल हैं || 

लगी ‘नियति’ है हर सुख हरने |

इसने ‘विप्लव-घड़ियाँ’ बाँटीं-

तन पर ‘काँटे’ झेल रही है ||

‘प्रीति’ चाहती है बस रोना |

कहती है ‘अब ज़ुल्म करो ना ||

‘जिन्दगी’ इसको ‘जेल’ हुई है –

इसमें इतने ‘दर्द’ भरो ना ||

धधक रहा है कोना कोना ||२||.



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