ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल(४) धधक रहा है कोना कोना
>> Wednesday, 12 September 2012 –
गीत(रूपक नवगीत)
सारे चित्र साभार गूगल खोज से उद्धृत
धधक रहा है कोना कोना
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निष्ठुर बन कर खेल रही है,
‘आग’,‘नाश का खेल घिनौना’
धधक रहा है कोना कोना ||
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|| ‘रस-प्रवाह’अब लगा ठहरने,
जल-जल पूरी उम्र है काटी |
निष्ठुर बन् कर खेल रही है,
‘आग’ ,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक रहा है कोना कोना ||
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कहीं उदर में ‘जठर-अनल’ है|
कहीं हृदय में ‘काम-अनल’ है ||
करती कहीं ‘वासना’छल है |
‘हिंसा’जलती कहीं प्रबल है ||
लगी ‘प्रकृति’में ‘ज्वाला’भरने |
‘शान्त चिन्तन की परिपाटी’-
‘एक दाह-दुःख’ झेल रही है ||
कितना दुष्कर जगना सोना |
पूज रहा ‘युग’,‘चाँदी-सोना’ ||
निष्ठुर बन कर खेल रही है,
‘आग’ ,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक रहा है कोना कोना ||१||
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झुलसा ‘इच्छाओं का कमल’ है |
तप्त हुआ ‘नयनों का जल’ है ||
दूषित हुआ ‘प्रेम का जल’ है |
'प्रकृति के नयना' हुये सजल हैं ||
लगी ‘नियति’ है हर सुख हरने |
इसने ‘विप्लव-घड़ियाँ’ बाँटीं-
तन पर ‘काँटे’ झेल रही है ||
‘प्रीति’ चाहती है बस रोना |
कहती है ‘अब ज़ुल्म करो ना ||
‘जिन्दगी’ इसको ‘जेल’ हुई है –
इसमें इतने ‘दर्द’ भरो ना ||
धधक रहा है कोना कोना ||२||.