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ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल(३) गरम आग पाइये





 ! गरम आग पाइये !



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! बारूदी ढेर पर हमारे निवास !


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आज हम कैसे करें जीवन की आस ?

बारूदी ढेर पर हम,आरे निवास ||

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चाहे हों गाँव के,या शहरी लोग |

‘मीठे कलेवर’ में हैं 'ज़हरी लोग' ||

सबके दोधारी हैं तीखे व्यवहार |

छल रहे हैं हमें सबके विशवास |

बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||१||


चारों ओर धुआँ उठा,है पवन गरम |

चैन-अमन से मिले,कहाँ ताज़ा दम !!

सुलग रहा कहीं, कहीं ‘मलिन हुआ’‘प्यार’ |

‘कामना’-‘भावना’ की घुट रही साँस |

बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||२||



है हमको दर्द और टीस भरा रंज |

हगक्योंकि ‘दया-भाव’भी हो गए ‘शतरंज ||

‘सान्त्वना के बोल’ आज हुये ‘व्यापार’ |

कहें करुण कथा निज आज किसके पास !

बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||३||



हर ओर आदमी के सर चढी ‘मौत’ |

‘डसने’ ‘इंसानियत’ को आगे बढ़ी मौत ||

हम बचाव के लिये,रहे यों पुकार |

किन्तु स्वर दबे ज्यों गले पड़ी फांस |

बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||४||




कट रहे 'धरा के केश औ नाखून'  |

‘नासमझ इंसान’ का देखिये ‘जुनून’ ||

दे हमें ‘तान भरे मीठे उपहार’ |

‘बांसुरी’ के लिये कहाँ मिले ‘बाँस’ !

बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||५||


  

  


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