सिला दिया तुमने
>> Monday, 23 April 2012 –
एक शिकायती गज़ल
अवाम को ऐसा सिला दिया तुमने |
उसूलों को जिन्दा जला दिया तुमने ||
दिखा कर दही की मटकी लुभाया यों-
धोखे से चूना खिला दिया तुमने ||
खुशनुमा नक्काशी, ज़रतारी की आड़ में -
काँटों का पैरहन सिला दिया तुमने ||
छिडका जिन्होंने तेज़ाब फसलों पर-
शहद उन दरिंदों को पिला दिया तुमने ||
खून से जिन्होंने सींचा था गुलशन -
अहसान उन सब का भूला दिया तुमने ||
हलाल के लहू से तुम्हें रश्क यों था -
अधमरी जोंकों को जिला दिया तुमने ||
पाई जो कुर्सी,किस्मत का करिश्मा था-
चमड़े का सिक्का चला दिया तुमने ||
करते हैं तारीफ आपस में जम कर-
ऊंटों को गधों से मिला दिया तुमने ||
"प्रसून" ये पत्थर हैं,गूँगे हैं,बहरे हैं -
इनसे क्यों शिकबा, गिला किया तुम
खुशनुमा नक्काशी, ज़रतारी की आड़ में -
काँटों का पैरहन सिला दिया तुमने ||
छिडका जिन्होंने तेज़ाब फसलों पर-
शहद उन दरिंदों को पिला दिया तुमने ||
प्रसून जी लाजबाब ग़ज़ल कही है आपने हर शेर कमाल का है