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छल की गागर छलकी रे


छल की गागर छलकी रे|
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छल की गागर छलकी रे |
हवा चली जहरीली हल्की हल्की रे ||
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कपट हाथ में विनाश ढपली |
बजा रही है तृष्णा पगली ||
मिटा 'आज ' को चिंता करती -
देखो कितनी 'कल' की रे ||
छल की गागर छल की रे ||१||
अरे ततैया सुन्दर लगती |
नस में डसे तो आग सुलगती ||
धोखा नजर न खाये देखो-
खबर रखो पल-पल की रे ||
छल की गागर छ्लकी रे ||२| |

उर के सारे भाव खोल कर |
मन के मोती सब टटोल कर ||
भेद खोलती चुपके चुपके -
नयन से बूँदें ढलकी रे ||
छल की गागर छलकी रे ||३||
रात रोशनी निगल चुकी है |
ओढ़ कालिमा निकल चुकी है ||
इन जलते बुझते तारों की -
चमक दिखाती झलकी रे ||
छल की गागर छलकी रे||४||


कुछ मुक्तक
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(१)
कला के कलाकन्दमें कपट-कंकड खटकते हैं |
निगलना मुश्किल, ये गले में अटकते हैं ||
राजनीतिक दंगल में कुछ मल्ल ऐसे भी हैं -
जो अपने ही अनुगतों को उठा कर पटकते हैं ||
(२)

छल,प्रपंच,कपट की वाएं जब चलती हैं |
प्रीति के मधुवन में, वे हमें बहुत खलती हैं ||
सहना बहुत मुश्किल, इंसानियत को लगता है-
हैवानों को मक्खनी रोटियां जब मिलती हैं||

(३)

विचार जो, ज्ञानप्रद मनोहर होते हैं |
वे ही इतिहास की धरोहर होते हैं ||
नीरस मरुस्थल सींच वही सकते हैं -
जिनके मन स्नेह के सरोवर होते हैं ||

(४)

वह घर तवाह नहीं वीरान होता है |
शानीचर ही उसका निगह्वान होता है||
काना बाँट करता जो फ़र्क की तराजू से -
जिस घर का बुजुर्ग बेईमान होता है ||

(५)
इतना क्यों आप हमें देखिये सताते हैं ?
बगल में बिठा कर हम आप को पछताते हैं ||
आपको सौंपा हमने हाशिया था लेकिन -
आप पूरे कागज़ पर हक़ अब जताते हैं ||
( ६)

जिनके नयनों की छागल में पानी नहीं है |
आयी रीति प्रीती की निभानी नहीं है ||
कैसा भी हो ऐसा व्यक्ति, हिन्दुस्तान में -
मुझको लगता शुद्ध हिन्दुस्तानी नहीं है||





























































































































































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