जून 2014 के बाद की गज़लें/गीत(17) स्वार्थ की सुरसा ! (‘मुकुर’ से)
>> Wednesday, 29 October 2014 –
गीत
(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
यहाँ हविश के दीवानों का लगा हुआ है मेला !
स्वार्थ की सुरसा का मुहँ है कितने योजन फैला !!
परिवर्तन की ढपली बजती, शोर भरा आकर्षण |
सम्बन्धों के बादल करते, काम-कुरस-रस वर्षण !!
नेह जोड़ कर धोखा देना, हुआ एक फैशन सा-
सरे आम मजनूँ को छलती, इश्क़ दिखा कर लैला !
स्वार्थ की सुरसा का मुहँ है कितने योजन फैला !!1!!
आचरणों की झोली खाली, हुये खोखले रिश्ते !
सच्चे प्यार के उजले मोती, पाप की चक्की पिसते !!
जीवन का रस कठिन निगलना, दूभर दो पल जीना !
व्य्वारों का स्वाद हुआ है, कितना अधिक कसैला !!
स्वार्थ की सुरसा का मुहँ है कितने योजन फैला !!2!!
आँगन-आँगन छद्म रोशनी, पापों भरे उजाले !
जले दीप तो उगल रहे हैं, घने अँधेरे काले !!
आसमान से कपट बरसता, प्रपंच की है लीला !
भीतर छुपी कालिमा, ऊपर से चाँदना
रुपहला !!
स्वार्थ की सुरसा का मुहँ है कितने योजन फैला !!3!!
धर्म के नाम पे अधर्म करता, खेल घिनौने कितने !
सब लालच की ओर जा रहे, पन्थ बने हैं जितने !!
सियासतों के पाँसे फेंकें, बैठे छैल छबीले !
कपट-कहानी रचता हर दिन, हर नहले पर दहला |
स्वार्थ की सुरसा का मुहँ है कितने योजन फैला !!4!!
दाता बन सब कुछ ले लेता, दादा बन गया लाला !
बाज़ारों में सरे आम है फलता धन्धा काला !!
दानवीर का परचम पकड़े, निकले हुये लुटेरे !
बिना स्वार्थ के नहीं किसी को देता एक अधेला !
स्वार्थ की सुरसा का मुहँ है कितने
योजन फैला !!5!!
सुंदर रचना ।