जून 2014 के बाद की गज़लें/गीत(16) छिदती पीडा ‘मुकुर’ से
>> Tuesday, 28 October 2014 –
गीत
(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
तन-मन में सन्ताप बढ़ाती, जीवन दुखद बनाती |
काँटों जैसी चुभती, छिदती, दुखदाई सी पीड़ा !!
उत्पादन के पवन-पुत्र का तन आये दिन बढ़ता |
सरकारी गोदामों में पर, अन्न रात-दिन सड़ता ||
निर्धन के घर राशन फिर भी, पूरा कभी न पड़ता |
थर्मामीटर के पारे सा, भाव नित्य प्रति चढ़ता ||
जाने कितने सुख यह लीले, पिशाचिनी सी भूखी-
सुरसा जैसा मुहँ फैलाये, महँगाई की पीड़ा !
काँटों जैसी चुभती, छिदती, दुखदाई सी पीड़ा !!1!!
उल्टे उसके पड़े सितारे, है किस्मत का हेठा |
खाली पेट मजूरी करता, उस ग़रीब का बेटा ||
कई दिनों के बाद में देखो, उसको काम मिला है !
पड़ा खाँसता खों-खों करता, बूढा बाप है लेटा ||
चार दिनों का बुझता चूल्हा, एक दिवस जलता है |
अनखाये इस उदार में पलती, अनखाई सी पीड़ा !
काँटों जैसी चुभती, छिदती, दुखदाई सी
पीड़ा !!2!!
वे ए.सी. बँगलों में रहते, खाते खीर-पँजीरी |
और उधर झोंपड-पट्टी में, पलती रही फ़कीरी ||
दिन दूनी है, रात चौगुनी उनकी पूजी बढ़ती |
सबका जीवन घायल करती, नम्बर दो की अमीरी ||
देख चीथड़े फटे वस्त्र वे, मुहँ सिकोड़ लेते हैं |
उन्हें मुफ़लिसी की लगती है, उबकाई सी पीड़ा !
काँटों जैसी चुभती, छिदती, दुखदाई सी पीड़ा !!3!!
सरकारी कर चोरी करके, दौलत गयी बटोरी |
नम्बर दो के माल से उनकी, हो गयी जीभ चटोरी ||
दिन में खाते मक्खन-मेबे, काजू-किशमिश-पिश्ते |
और रात में रबड़ी वाली, खीर की भरी कटोरी ||
उधर भूख से खाली पेट में, बन कर शूल सताती-
बन कर ऐंठन, बल खाती है अँगड़ाई सी पीड़ा !
काँटों जैसी चुभती, छिदती, दुखदाई सी पीड़ा !!4!!
बहुत सुंदर !