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जून 2014 के बाद की गज़लें/गीत (18) दबे हुये हैं घुटते क्रन्दन ! (‘मुकुर’ से)

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
लगी हुई हैं कितनी चोटें, समाज का तन दुखता !
दबी हुई हैं कई सिसकियाँ, दबे हुये हैं क्रन्दन !!
शक्तिवाद के दबंगपन के, हुये शिकार लोग कुछ सीधे |
सहते अत्याचार अल्पमत, बैठे हुये हैं नेत्र मूँदे !!
मदद माँगते, नहीं मिल रही, कसक दबाकर  बैठे !
कर न सके कुछ, विवश हुये हैं, अनाचार पीड़ित जन |
दबी हुई हैं कई सिसकियाँ, दबे हुये हैं क्रन्दन !!1!!
कैन है योगी कर्मयोग का, जो म्हणत की करे तपस्या !
इसी लिए तो विप्लव आया, पनपी लंका, मिटी अयोध्या !!
लोभ-कपट-छल-दम्भ आदि के, मारीच हुये हिन् सक्रिय-
यहाँ हुई हद, रूप रामका, लिए हुये हैं रावण !
 दबी हुई हैं कई सिसकियाँ, दबे हुये हैं क्रन्दन !!2!!
आँखों में किरकिरी, मची है, नज़रों में गन्दगी आ गयी !
सच न दीखता, झूठ दीखता, ऐसी बेहद धुन्ध छा गयी !!
सोच में ऐसी आग लग गयी, यथार्थ राख हुआ है !
नहीं रहा है उसमें वह दम, बना है भ्रम का अंजन !
 दबी हुई हैं कई सिसकियाँ, दबे हुये हैं क्रन्दन !!3!!
है आज्ञान सरासर जिस पर, लगा हुआ है ज्ञान का लेबिल |
अबोध के मैले पानी में, डूबा बोध, बन गयी दलदल ||
इसमें फँसी हुई मानवता,मुश्किल हुआ निकलना !
जान के भूखा बना हुआ है, मगरमच्छ सा चिन्तन !
दबी हुई हैं कई सिसकियाँ, दबे हुये हैं क्रन्दन !!4!!
 

    

Onkar  – (2 November 2014 at 01:34)  

सुंदर प्रस्तुति

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