जून २०१३ के बाद के गीत/गज़लें (ब)(1) दिये तो जलाओ !(‘शंखनाद’ से)
>> Saturday, 1 November 2014 –
गीत
चलन रोशनी का कोई तो चलाओ !!
अँधेरे घने हैं, दिये तो जलाओ !
निराशा का माना कि है बोलबाला |
नहीं पास कोई है उम्मीद वाला ||
माना कि तुम थक गये चीख कर के-
नहीं टेर को कोई है सुनने वाला ||
मगर टिमटिमाते दिए की तरह जो-
जगी आस है जो उसे मत सुलाओ !!
चलन रोशनी का कोई तो चलाओ
अँधेरे घने
हैं, दिये तो जलाओ !!1!!
प्रयासों की चिमटी उतारी तो होगी !
बुझी राख में भी चिनगारी तो होगी !!
कि, इन चुप्पियों में दबे स्वर तो होंगे !
घुटी चीख की कुछ शुमारी तो होगी !!
धीरज बँधाओ औ दहशत हटाओ !
मरते स्वरों को तो जीवन दिलाओ !!
चलन रोशनी का कोई तो चलाओ !
अँधेरे घने
हैं, दिये तो जलाओ !!2!!
मानाकि कोशिश अब थक चुकी है |
बगावत की चाहत भी मिट चुकी है |
चुभन झेल ली और उफ़ तक न की है !
उँगली में पैनी अनी चुभ चुकी है !!
गुलाबों की बगिया में ऐसा तो होगा-
चुभे कोई काँटा तो मत तिलमिलाओ !
चलन रोशनी का कोई तो चलाओ !
अँधेरे घने
हैं, दिये तो जलाओ !!3!!
माना बड़ी है विकारों की दुनियाँ |
बहुत छोटी है अब सुधारों की दुनियाँ ||
बड़ी जान है पतझरों की ह्वा में-
बेकस
है माना बहारों की दुनियाँ ||
माली बहुत आस खोये हुये हैं-
“प्रसून” इनको जाकर दिलासा दिलाओ !!
चलन रोशनी का कोई तो चलाओ !
अँधेरे घने
हैं, दिये तो जलाओ !!4!!