घनाक्षरी वाटिका |षष्ठम् कुञ्ज(मिलन-पथ)प्रथम पादप(प्रेम-योग) (क)समर्पण)
>> Thursday, 26 December 2013 –
घनाक्षरी
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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‘कामनायें’,
‘इन्द्रियों के स्वाद’, चखने के लिये,
आयें, उन्हें ‘मन के
सदन’ से भगाइये !
चाह ‘किसी और’ की
तो, ‘सपने’ में भी न करे,
‘प्रिय’ की ही इच्छा
निज ‘चित्त’ में जगाइये !!
‘आनन्द-विभोर मोर’
जैसे ‘बादलों’ में रमे,
इसी तरह ‘मन’ बिज
;प्रेमी’ में रामाइये !!
‘व्यवधान’-हीन
‘अवधान’ से लगा के ‘मन’,
‘एक दिश’ हो के
‘ध्यान’, ‘प्रिय’ में लगाइये !!१!!
‘श्रद्धा’ और
‘आस्था’ से, ‘एकनिष्ठ’, हो के सदा,
‘इच्छा-डोर’ से तो
‘प्रीति’ उस से ही जोड़िये !
‘बीतरागी’ हो के
और,’चाहतों की दौड़’ रोक,
‘चित्त’ का लगाव
‘सारी वस्तुओं’ से मोड़िये !!
कर के समर्पित,
‘कर्म’ निभाते हुये’
निज ‘कर्त्तव्य-भाव’
कभी भी न छोड़िये !!
एक ‘प्रेम’ सत्य,
शेष ‘नाटक’ जगत सारा,
सोच ऐसे ‘आनन्द’ के
‘रस’ को निचोड़िये !!२!!
‘साधन’ में ‘वही’,
और ‘साधन’ में एक ‘वही’,
‘साधना’ में ‘वही’,
यही तथ्य जान लीजिये !
‘जीवन के सारे ही
दस्तूर’ हैं ‘उसी’ के लिये,
‘सारी सम्पदायें’
हैं ‘उसी’ की मान लीजिये !!
सारे ‘अनुराग’,
‘मन-मीत’ को समर्पित,
कर के ‘संसार-भोग’-‘रस-पान’ कीजिये !!
खुले न ‘रहस्य’
किन्तु, ’प्रेम’ का किसी पे कभी,
भूल से भी, बात ऐसी
आप मान लीजिये !!३!!
शब्द कोष
अवधान=ध्यान की स्थिरता
बहुत सुंदर !