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घनाक्षरी वाटिका |पंचम कुञ्ज (गीता-गुण-गान)

(कणाद ऋषि) 
सप्तम पादप(कर्म-योगी)
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‘कर्म’ को को समझ कर ‘धर्म’ जो निभाते सदा,
ऐसे लोग ‘कर्म-योगी’, जग में कहाते हैं |
मिल जाये ‘मरुस्थल’, चिन्ता नहीं रंच मात्र,
बन ‘भागीरथ’ वहीं, ‘नदियाँ’ बहाते हैं ||   
‘गंगा-स्नान’ छोड़, ‘कर्म’ में प्रवृत्त हो के,
अपने ‘पसीने की ही गंगा’ में नहाते हैं ||
‘त्याग-वीर’ ऐसे लोग, पर-उपकार कर,
‘शिरोमणि’ सभी लोगों के तो बन जाते हैं ||१||
(चरक ऋषि)

कभी नहीं करते हैं, व्यर्थ की दिखावट ये,
‘धरती’ से जुड़े हुये, ‘ऊँचे आसमान’ हैं |
दिनोदिन ‘उन्नति’ की ओर बढ़ते हैं सदा,
ऊपर उठाते इन्हें, ‘कर्म के विमान’ हैं ||
सभी को सामान मान, ‘नम्रता’ में डूबे हुये,
निज कामों पे न करते ये करते अभिन्न हैं ||
‘सेवा-भाव’ कूट कूट, भरा इनके ‘ह्रदय’ में,
मानते ये सारे ‘काम’ एक ही सामान हैं ||२||
 होते नहीं ‘कर्म-हीन’, करते हैं ‘चित्त’ दे के,
जो भी मिले ‘कर्म’, उसे समझ ‘प्रसाद’ हैं |
‘तुच्छता’ या ‘हीनता’ के भावों से सदा ही दूर,
‘भावना’ पे ओढ़ते न, कभी ‘अवसाद’ हैं ||
‘काम’ ढूँढते है किन्तु होते न निराश कभी,
‘धैर्य’ खो के मन में न, रखते ‘विषाद’ हैं ||
‘अपने-पराये’ सभी लोगों की ‘भलाई’ हो तो,
‘किसी काम’ से न इन्हें, कुछ ‘परिवाद’ हैं ||३||


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 मेरे ब्लॉग 'साहित्य-प्रसून' पर   नयी करवट (दोहा-ग़ज़लों पर एक काव्य ) में आप का स्वागत है !
        

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