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घनाक्षरी वाटिका |पंचम कुञ्ज (गीता-गुण-गान)षष्टम पादप(निर्वेद)

'निर्वेद' वह अवस्था है जब ज्ञान-अनुभूति से परे हो कर अहंभाव

 पर प्रभाव नहीं डालता है | 

(सारे चित्र 'गूगल-खोज से साभार)  

षष्टम पादप(निर्वेद)
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एक जैसे ‘लाभ-हानि’, ’जीवन-मरण’ या कि,
‘यश-अपयश’ और ‘मान-अपमान’ हैं |
‘कर्म में जो लगे हुये, ‘धर्म’ में जो पगे हुये,
उनके लिये ये सारे एक ही सामान हैं ||

‘सुख-दुःख’, ‘सफलता-असफलता’ में कहीं,
डिगते नहीं कभी भी, ‘योगी’ धीरवान हैं ||
‘काँटों’ की ‘चुभन’ मिले, भाग्य में या ‘फूल’ खिलें,
एक जैसे होते इन्हें, ‘पतन-उत्थान’ हैं ||१||

‘काम-क्रोध’, ‘मोह-लोभ’, मद औ परिग्रह आदि,
जो भी हों वे सारे ‘तथ्य’, उनके आधीन हैं |
होते हैं ‘अभाव’ तो भी, सर उठा के जीते हैं,
स्वाभिमान रखते हैं, होते नहीं ‘दीन’ हैं ||
होते ‘पुरुषार्थी’ ये, और ‘परमार्थी’ ये,
स्वार्थी न होते कभी, ‘प्रीति’ में प्रवीण हैं ||
‘प्रतिकार-प्रतिशोध-भावना’ का काम नहीं,
‘छल-दम्भ-कपट’ से, रहते सदा हीन हैं ||२||

 
गीता के सिद्धान्तों पे, चलते हैं लोग जो भी,
करके वे ‘कर्म’ सारे, रहते ‘आत्म-लीन’ हैं |
‘आत्मा’ में झाँकते हैं, आँकते हैं ‘आत्म-शक्ति’,
ताकते न ‘बाहर’ को, रहते ‘प्रभु-लीन’ हैं ||
‘तन-मन-इन्द्रियों’ को, मानते हैं ‘साधन’ ये,
‘मनोभाव’ होते नहीं, इनके ‘मलीन’ हैं ||
हृदय ‘काली कामली’ से, चढ़े नहीं कोई ‘रंग’,
यद्यपि ये सारे ‘रँगों, से रँगे रंगीन हैं ||३||


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   मेरे ब्लॉग 'साहित्य-प्रसून' पर   नयी करवट (दोहा-ग़ज़लों पर एक काव्य ) में आप का स्वागत है !
        

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