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जून २०१३ के बाद की गज़लें (३) खोट


     (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
छल-फ़रेब के लगे हैं पत्थर, वतन के दिल पर लगी है चोट |
मरहम हैं  लाचार जतन के, हम को  खलती यही  कचोट ||
हम किस पर विशवास करें अब, जिम्मेदारी किस को दें-
रंग  बदलती  गिरगिट जैसी,  राजनीति में अनगिन खोट !!
कितना  ‘धुआँ’ फरेबों  का है, ‘चालबाजियाँ’  सुलग  रहीं-
घुटन भरी है कितनी इस में, बातावरण  हुआ  दमघोट ||
सरेआम बाज़ार में उस का  चिथड़े चिथड़े जिस्म हुआ -
शायद उस  ने चबा लिया बम, समझा था जिसको अखरोट ||
‘भोली कोमल सतह’ के नीचे की  ज़मीन  की  बात न  कर-
‘वक्त की चट्टानें’ यदि करवट बदलेंगी होगा ‘बिस्फोट’ ||
चन्द  दिनों  के  बाद  चुनाबी  मेले  होंगे  जहाँ  तहां-
बहुरूपिये  सियासत  वाले, ठगेंगे  ‘भोलेपन’  की ओट ||
बस्ती  बस्ती ‘सत्ता-पद’  के  कुछ ‘व्यापारी’  आयेंगे-
‘कुर्सी  के  सौदागर’ लेकर  आयेंगे  थैलों में  नोट ||
सब्ज़ बाग तुमको दिखला कर, डालेंगे ‘लालच का जाल’-
कभी किसी के ‘जाल’ में फँस कर, तुम न बेचना अपना वोट !!
“प्रसून” शतरंजों  की  चालें, ‘धर्म धुरन्धर’  कई  चले-
दौर चुनावी ‘बिसात’ से हैं, जनता  बनी है इन की ‘गोट’ |



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