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मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (घ) (छल-का जाल)(४!फेक न 'अपने छल का जाल'!


'पारस्परिक व्यक्तिगत या सार्वजनिक सम्बन्धों में

 पार्दार्शिकता के  अभाव' की ओर इंगित करती है यह 

रचना  !! ये 'झूठे और अस्थाई सम्बन्ध' सामाजिक 

विघटन का कारण हैं ! 

(चित्र 'गूगल-खोज' से साभार ) 


!फेक न अपने छल का जाल! 


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दोनों हाथ बटोरा धन को, ’प्रेम-वित्त’ से तू कंगाल |

‘भोली प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!

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भोला चेहरा,मीठी बातें,व्यवहारों में भरी ‘मिठास |

‘शराफतों का नकाब’ ओढ़े, तू लेता है सबको फांस ||

‘नये शिकार’ फांसता हर दिन, तिलिस्म सा तेरा अंदाज़ ||

तेरे ‘नकली प्यारे मुखड़े’ का होता है अजब कमाल || 

‘भोली प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!१!!


‘अपराधों’ में पली ‘अमीरी’, तू ‘चलती फिरती दूकान’ |

‘झूठ’ की सेहत पनप रही है,सच तेरा बिलकुल बेजान ||

‘चमक-दमक’ है तेरी कृत्रिम, जुगनू, मैला लिये प्रकाश ||

तू अलबेला चालबाज़ है, छद्म-भरी है तेरी चाल ||

‘भोली प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!२!!


 

‘प्रेम-साधना’ तू क्या जाने,तूने सीखा है व्यापार |

‘तेरी नाव’ में ‘छेद हज़ारों’,किसका करेगा ‘बड़ा’ पार ||

तेरा ‘खुदा’ है ‘कुबेर-कारूँ’, बिका हुआ तेरा ‘ईमान’ ||    

‘महँगे दामों’ में बिकनी को, ढूँढ़ रहा ‘कोई टकसाल’ ||

‘भोली प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!३!!


“प्रसून” तेरी गन्ध है झूठी, ‘कागज़ का तेरा निर्माण’ |

‘मान्यवरों के गले में पड़ता, खो कर तू अपनी ‘पहँचान’ ||

‘सियासतों की शतरंजों के मोहरों’ का तू ‘सज्जा-साज’ ||

‘तेरी सजावट’ एक ‘दिखावट’, मत चढ़ तू ‘देवों के बहाल’ !!

‘भोली प्रीति-हिरनियों’ पर तू फेक न अपने ‘छल का जाल’ !!४!!



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