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विवेकोर्मि (स्वामी विवेकानन्द पर आधारित एक अपूर्ण महाकाव्य )




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   सर्ग-२
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(विवेकानन्द-महिमा)
(चतुर्थ अन्विति)


‘तसल्लियों के कोमल कर’ से, ’पीडाओं’ को सहलाने |
हुये अनमने, आर्त्तजनों को, ढारस देकर बहलाने ||
‘गहन रहस्यों के सागर’ से ‘सुरस जीव्य रस’ भर लाने ||
‘उलझी उलझी हर गुत्थी’ को, ‘विवेचना’ से सुलझाने |
‘नीरस मन जकी मरुस्थली’ में, आये बन ‘रस का निर्झर’-
‘सब में ईश्वर का प्रभुत्व है’, बोध कराने आये थे ||
‘पीडाओं के तन’ पर ‘स्नेहिल हाथ’ फिराने आये थे |
‘सब से बढ़ कर आत्मतत्व है’, गीत ये गाने आये थे ||
‘घोर निराशा तम’ में’, ‘आशा-दीप’ जलाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||१४||

वे आये तो ‘मन की मैली कुवासना’ का अन्त हुआ |
‘दम्भी-कामी और पामरी उपासना’ का अन्त हुआ ||
‘शोषण मयविद्र्प्प्प घिनौनी कुभावना’ का अन्त हुआ |
‘काली विषमय नागिन जैसी कुकामाना’ का अन्त हुआ || 
क्योंकि लिये वे ‘सद्-आराधन’ का देने ‘अनुपम सद्वर’-        
‘दम्भ-ज्ञान’ में वे ‘स्नेह रसधार’ बहाने आये थे ||
उस ‘धारा’ में ‘कई पातकी लोग’ नहाने आये थे |
‘सुगम साधना’ से निखारने, मन चमकाने आये थे ||
‘अन्तस्तल का धुँधला मुक्ताफल’ चमकाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||१५||

‘चौराहों’ पर ‘शक्ति दानवी’, ‘कुपथ नाश का’ बता रही |
‘कैसे बच कर निकलें’, सब को चिन्ता यह ही सता रही ||
‘इंसानों’ को ‘हैवानों’ सा ‘नाच घिनौना’ नचा रही |
‘कामकेलि’ के, ‘कुवासना’ के ‘खेल विश्रृंखल’ रचा रही ||
‘अग्नि विकारों की’ थी जलने लगी स्वर्ग सी धरती पर-
वे ‘शीतलता की फुहार’ बन, ‘जलन’ बुझाने आये थे ||
‘आतप-झुलसे जन’ हित, ‘जल-घन’ बने, रिझाने आये थे |
‘सब की सेवा में ही जीवन सुख’ समझाने आये थे ||
‘सच्चा स्नेह-मार्ग क्या है यह’ हमें सुझाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||१६||



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