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विवेकोर्मि (स्वामी विवेकानन्द पर आधारित एक अपूर्ण महाकाव्य )


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   सर्ग-२
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(विवेकानन्द-महिमा)
(तृतीय अन्विति)



‘परतंत्रता’ बेडियाँ बन कर, जकड़ रही थी ‘जनता’ को |
‘नीति विदेशी’, अजगर बन कर, पकड़ रही ‘सज्जनता’ को ||
‘हिंसा का विषरस’ फैला कर, मिटा रही थी ‘समता’ को |
चारों और बिखेर रही थी, ‘भेदों भरी विषमता’ को ||
सन्त विवेकानन्द देश में, भरने ‘सजग चेतना-स्वर’-
‘पूर्ण बन्धन रहित मोक्ष का मार्ग’ बताने आये थे ||
‘मुक्ति-चिन्तन’ और ‘शाश्वत सत्य’ जताने आये थे |
‘माया-बन्धन’ काट के सब को, मुक्त कराने आये थे ||
‘दास-वृत्ति-सन्ताप’-ताप को आप सिराने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||९||


राम, कृष्ण, चाणक्य, बुद्ध की महावीर की नीति मिटी |
‘शाश्वत और चिरन्तन’ अपनी ‘आर्य-धर्म की रीति’ मिटी ||
ईसा और मुहम्मद, नानक की ‘मानव हित प्रीति’ मिटी |
‘ईश्वर के प्रति श्रद्धा’, सेवा, होकर आशातीत मिटी ||
वे सिखलाने ‘धर्म-तत्व’ की बातें सुगढ और सुर सुखकर-
‘उपेक्षितों’ को ‘सुमधुर, सुन्दर प्यार’ लुटाने आये थे ||
अनाश्रितों को ‘आश्रय’ दे कर,उन्हें उठाने आये थे |
टूट चुकी जो उनकी फिर से ‘शक्ति’ जुटाने आये थे ||
‘साहस’ पर जो ‘जंक’ लगी थी, उसे छुटाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||१०||


‘घोर निराशा’ में डूबा ‘मानव-जीवन का हर कोना’ |
देख ‘दुर्दशा भारत माँ की’, आता था सब को रोना ||
हमें पड़ा, ‘अपनी संस्कृति की गरिमा रूपी धन’ खोना |
क्योंकि ‘फ़िरंगी’ चाह रहे थे, यहाँ ‘दीनता-दुःख’ बोना ||
वीर विवेकानन्द विश्व में, बन् कर ‘आशुतोष शंकर’-
दुखीजनों को ‘सच्चे सुख का अर्थ’ बताने आये थे ||
क्योंकि ‘दरिद्रों’ में ‘नारायण’ समय बिताने आये थे|
‘परम तोष की अंत:सलिला’ यहाँ बहाने आये थे ||
‘पुण्य की पावन गंगा’ में वे यहाँ नहाने थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||११||


‘परम चेतना’ पर ‘धुँधली सी परत बनी जडता‘ व्यापी |
और ‘बुद्धि’ पर ‘अन्धकार’ की मची हुई ‘आपाधापी’ ||
‘म्लेच्छ,क्रूर, औ कुटिल मार’ से, ‘भारत की धरती’ काँपी |
‘आंगल शासक जन’ भारत के लिये बने थे ‘संतापी’ ||
‘पुण्य आत्मा’ और ‘महात्मा’, रुके नहीं क्षण भर थककर-
‘परिवर्तन’ के ‘क्रान्ति-स्वरों’ की ‘तान’ सुनाने आये थे ||
‘गति की देवी’ रूठ गयी थी, उसे मनाने आये थे |
रुकी हुई हर ‘प्रगति-सुगति को पुन: बढाने आये थे ||
‘अज्ञानी मन’ को, ‘प्रज्ञा का पाठ’ पढाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||१२||


‘ ‘रुकना’, ‘मृत्यु’ समान, और है ‘चलते रहना’ ही ‘जीवन’ |
‘ ‘कर्मवीर’ ‘कष्टों’ में ही करता है, ‘मन का अनुरन्जन’ ||
‘ ‘सुमन’ खिला करते ‘काँटों’ में, ‘दुख’ में ही भरते ‘प्रहसन’ |
‘ ‘वीराने’ में भर देते हैं, ‘धीर वीर’, ‘मीठे गुंजन’ ‘ ||
‘साहस’ भर कर, ‘निराश मन’ में, ऐसे ‘सौम्य वचन’ कह कर-
‘अमृत-रस’ की बौछारों से, ‘दर्द’ भुलाने आये थे ||
‘व्याकुलता’ को ‘गहरी मीठी नीद’ सुलाने आये थे |
‘परमानन्द रूप झूले’ में, हमें सुलाने आये थे ||
‘दृष्टि समन्वय की’ लेकर के, इसे बचाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||१३||



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