सामयिकी (४)हृदय में जली हुई ज्वाला !(एक विरोधाभास) काव्य ज्वालामुखी में एक नयी सामयिक रचना
>> Thursday, 27 December 2012 –
गीत (रूपक-प्रतीक-गीत)
विचित्र बात है कि,एक ओर प्रगति का 'अमन के डंके' पर स्वान्ग्भारा नाटक !दूसरी ओर 'भ्रष्टाचार का दानवीय विकास ! 'अमन' के 'ठंडे आवरण' में 'दुराचरणों की जलती आग की भट्टी'!!
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ज्वालामुखी(एक ओजगुणीय काव्य)में एक नयी
रचना ‘सामयिक
परिस्थिति’ में !
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बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !
‘काल ’ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ कोपाला ||
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‘पीड़ा भरी कराह’ उठ रही, ‘दर्द भरी’ है
‘सिसकी’ |
ऐसी, ‘अमन की देवी’ पर, ‘बदनज़र’ पड़ी है
किसकी ??
‘धीरे धीरे ‘आँसू’ रिसते, ‘नयन’ हो गये
गीले-
‘मानवता’ को ‘दर्द’ हुआ ज्यों, दुखा हो कोई ‘छाला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||१||
‘लाज की हिरणी’ तड़फ़ तडफ कर, लेती ‘अन्तिम साँसें’ |
डसने को ‘वासना की नागिन’, आई इसे कहाँ से ??
‘संयम’ टूट गया, ‘धीरज’ ने अपनी ‘करवट’ बदली –
लिख न जाये ‘इतिहास’ में ‘खूनी पृष्ठ कोई काला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !
अब नारी की ‘सहन-शक्ति’ की ‘बन्धन-डोरी’ टूटी |
‘अबला’ है वह, ‘बात पुरानी’ हुई है सारी झूठी ||
पाकर ‘अतिशय चोट’ हिली है इस ‘धरती’ की काया’-
लगता है, अब ‘प्रलय’ यहाँ पर निश्चय आने वाला ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||३||
‘पुरखों ने जो बाग यहाँ थे सुन्दर कई लगाये |
इनमें धोखे से ‘विष वाले पौधे', कुछ उग आये ||
इनके ‘ज़हरीलेपन’ से हम कितने हुये विकल हैं-
जिसने इनका ‘स्वाद’ चखा है, ‘काल’ का हुआ ‘निवाला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||४||
‘आग के दरिया’ ने सींचे है, ‘खिले बगीचे सारे’ |
‘चिनगारी’ बन गयीं हैं ‘कलियाँ’, औ “प्रसून” ‘अंगारे’ ||
इस ‘विकास के दौर’ में अन्तर ‘बात’ समझने में है –
हम ने इस को ‘लपट’ कह दिया, तुमने कहा ‘उजाला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी हुई है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों जलती ‘आग’ को पाला||५||
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शानदार लेखन,
जारी रहिये,
बधाई !!