ज़लजला (ग) पाप की लहरें |(१) टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ |
>> Wednesday, 26 December 2012 –
गीत(प्रतीक-गीत)
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(दिल्ली-‘यौन-हिंसा’-दिसम्बर-२०१२ पर विशेष)
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‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’|
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आपस में करते हैं दंगे |
उड़ा रहे हैं इन्हें ‘लफंगे’ ||
‘दाँव-पेंच’ कितने ‘शैतानी’ !
अनियंत्रित हो गयीं ‘पतंगें ||
‘अनुशासन की डोरी हो गयी-है कितनी ढीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||१||
‘तोड़-फोड़’ औ ‘आगजनी’ से |
जले जा रहे सभी ‘दरीचे’ ||
‘प्रेम’ के हरे भरे थे सुन्दर-
‘पुरखों ने ‘मेहनत’ से सींचे ||
‘भारत माँ की गर्दन’ झुक गयी, हो कर ‘शर्मीली’ ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||२||
आज मचलने लगी है देखो !
‘आग’ उगलने लगी है देखो !!
पाकर ‘रगड़’ तोड़ दी ‘चुप्पी’-
‘धूधू’ जलने लगी है देखो !!
करवट बदल के ‘बागी’ हो गयी, ‘माचिश’ की तीली||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||३||
‘”प्रसून” जल गये, ’कलियाँ’ झुलसीं |
‘सारी बगिया’ हुई विकल सी ||
‘हिंसा’ ‘शान्ति-वन्’ में पनपी-
कितनी भीषण ‘दावानल’ सी ||
‘अमन की देवी’ कितना रोई, ‘आँखें’ हैं गीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||४||
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शानदार लेखन,
जारी रहिये,
बधाई !!
‘”प्रसून” जल गये, ’कलियाँ’ झुलसीं |
‘सारी बगिया’ हुई विकल सी ||
‘हिंसा’ ‘शान्ति-वन्’ में पनपी-
कितनी भीषण ‘दावानल’ सी ||
‘अमन की देवी’ कितना रोई, ‘आँखें’ हैं गीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||
वाह ! वाऽह ! क्या बात है !
आदरणीय देवदत्त प्रसून जी
अच्छी रचना है ...
आपके ब्लॉग पर कई रचनाएं पढ़ीं ...
बहुत सुंदर रचनाएं हैं...
साधुवाद !
आपकी लेखनी से ऐसे ही सुंदर सृजन होता रहे, यही कामना है …
नव वर्ष अब समीप ही है ...
अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार