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ठहरो मेरी बात सुनो ! (सम्बोधन-गीतों का काव्य)(क)‘अन्तरतम’ के प्रति (२) मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !



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मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !



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नहीं है ‘सागर सी गहराई’ |
पर ‘हर रिश्ता’ तीखा खारा ||
स्थिर नहीं है प्रेम किसी का-
मानों हो ‘थाली का पारा’ ||'
‘अपना कहने वालों’ से ‘मुहँ’ मोड़ के आया हूँ |
लिपटे ‘मोह के सारे बन्धन’ तोड़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!१!!

‘प्यार’ में दिल तक ‘पैठ’ नहीं है-
सब का ‘सतही प्रेम’ है छिछला |
‘पंक’ अधिक है, ‘नीर’ है थोड़ा-
‘जेठ के सूखे ताल’ सा उथला ||


वे  सारे ‘रस-रीते घट’  मैं,  फोड़  के आया हूँ |
‘हर प्रभाव से हीन चदरिया’, ओढ़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!२!!


‘झूठी खुशियाँ लिये ‘गोद’ में-
            कही ‘सुखों के लगे हैं मेले’ |
            ‘आँसू के छलकाते ‘प्याले’-
‘चुभते दुखोँ’ के कहीं झमेले ||
‘जेठ के आतप’, ‘सावन-घन’को, छोड़ के आया हूँ |
‘अट्टहास’  को  या  ‘क्रन्दन’ को, छोड़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’  को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!३!!


‘भ्रमरों की गुंजार’ ‘ह्रदय में-
भरमाते ‘भ्रम’ को भरती है |
‘महक सुहानी’ भीनी भीनी-
मन मेरा मोहित करती है ||


वह ‘फूलों का महका आँगन’ छोड़ के आया हूँ |
‘भ्रमर के गुन्जन’, ‘कोकिल-कूजन’, छोड़ के आया हूँ |
 मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!४!!


जिसने खिलते ‘प्रसून” बाँटे-
उन में ‘स्वार्थ-गन्ध’ बसी थी |
 जो भी ‘माला’ पड़ी गले में-
उस में ‘ईर्ष्या’ रची लसी थी ||
झूठा कृत्रिम हर ‘अभिनन्दन’, छोड़ के आया हूँ |
मैं ‘मरीचिका’ का ‘माया-वन’, छोड़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!४!!

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