ठहरो मेरी बात सुनो ! (सम्बोधन-गीतों का काव्य)(क)‘अन्तरतम’ के प्रति (२) मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !
>> Thursday, 9 May 2013 –
गीत(सम्बोधन--रहस्य-गीत)
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मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !
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नहीं है ‘सागर सी गहराई’ |
पर ‘हर रिश्ता’ तीखा खारा ||
स्थिर नहीं है प्रेम किसी का-
मानों हो ‘थाली का पारा’ ||'
‘अपना कहने वालों’ से ‘मुहँ’
मोड़ के आया हूँ |
लिपटे ‘मोह के सारे बन्धन’
तोड़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से
‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे
‘प्रियतम’ !!१!!
‘प्यार’ में दिल तक ‘पैठ’ नहीं है-
सब का ‘सतही प्रेम’ है छिछला |
‘पंक’ अधिक है, ‘नीर’ है थोड़ा-
‘जेठ के सूखे ताल’ सा उथला ||
वे सारे ‘रस-रीते घट’ मैं,
फोड़ के आया हूँ |
‘हर प्रभाव से हीन
चदरिया’, ओढ़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से
‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे
‘प्रियतम’ !!२!!
‘झूठी खुशियाँ लिये ‘गोद’ में-
कही
‘सुखों के लगे हैं मेले’ |
‘आँसू के छलकाते ‘प्याले’-
‘चुभते दुखोँ’ के कहीं
झमेले ||
‘जेठ के आतप’, ‘सावन-घन’को, छोड़ के आया हूँ |
‘अट्टहास’ को या ‘क्रन्दन’
को, छोड़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़
के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!३!!
‘भ्रमरों की गुंजार’ ‘ह्रदय में-
भरमाते ‘भ्रम’ को भरती है |
‘महक सुहानी’ भीनी भीनी-
मन मेरा मोहित करती है ||
वह ‘फूलों का महका आँगन’ छोड़ के आया हूँ |
‘भ्रमर के गुन्जन’, ‘कोकिल-कूजन’, छोड़ के आया हूँ |
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़
के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!४!!
जिसने खिलते ‘प्रसून” बाँटे-
उन में ‘स्वार्थ-गन्ध’ बसी थी |
जो भी ‘माला’ पड़ी गले में-
उस में ‘ईर्ष्या’ रची लसी थी ||
झूठा कृत्रिम हर ‘अभिनन्दन’, छोड़ के आया हूँ |
मैं ‘मरीचिका’ का ‘माया-वन’, छोड़ के आया हूँ ||
मेरे ‘प्रियतम’, तुम से ‘मन’ को जोड़ के आया हूँ |
मुझ से प्यार करो हे ‘प्रियतम’ !!४!!
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