सामयिकी(६)’न्याय-शशक’ उलझा है |
>> Wednesday, 9 January 2013 –
गीत(रूपक-प्रतीक-गीत)
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‘नयाय-शशक’ उलझा है देखो, ‘राजनीति के जालों में | (शशक=खरगोश)
‘नीति हिरनियाँ’ फंसी तड़फतीं, ‘बहस’ के ‘बुरे बबालों’ मे ||
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सारे जग में ‘हिन्द की बेटी’ की हो गयी ‘रुसबाई’ है |
अजब ‘तमाशा’ हुआ, हुई उफ़, कितनी ‘लोक हँसाई’ है ||
तुम ‘कानूनी दाँव पेंच’ में उलझे, सुलझ न पाओगे-
‘इंसानी जज्वों’ की धज्जी, तुमने खूब उड़ाई है ||
होता है ‘क़ानून’ सार्थक, यदि ‘अपराध’ मिटाये तो-
वर्ना क्या ‘बड़बोले’ इस ‘क़ानून के बजते गालों’ में ||
‘नयाय-शशक’ उलझा है देखो, ‘राजनीति के जालों में |
‘नीति हिरनियाँ’ फंसी तड़फतीं, ‘बहस’ के ‘बुरे बबालों’ मे ||१||
‘लाज की बगिया’ जली यहाँ, वह ‘अनबुझ आग’ जलाई है |
‘मनमानी’ बन गयी है ‘तीली’, ‘हविश’ की ‘दियासलाई’ है ||
‘देवी’ है ‘इन्साफ’ की सोई, ‘आँखों’ पर ‘पट्टी’ बाँधे-
‘सियासतों की अफ़ीम’ दे कर, ‘गहरी नींद’ सुलाई है ||
‘ए.सी. कारों’ में चलते हैं, बैठे ‘ऊंचे भवनों’ में-
‘मानवता’ को रोज़ बचाते, ‘ख़्वाबों और खयालों’ में ||
‘नयाय-शशक’ उलझा है देखो, ‘राजनीति के जालों में |
‘नीति हिरनियाँ’ फंसी तड़फतीं, ‘बहस’ के ‘बुरे बबालों’ मे ||२||
‘धर्म की वंशी’, ‘मर्यादा’ से हट कर आज बजाते हैं |
‘धर्म की वंशी’, ‘मर्यादा’ से हट कर आज बजाते हैं |
‘लाज बचाने वाले मोहन’, ‘शब्दों’ में उलझाते हैं ||
अलगावों की दीमक’, ‘प्रेम में पगी एकता’ चाट गयी-
‘भारत’ और ‘इण्डिया’ दोनों अलग अलग बतलाते हैं ||
‘देश की गरिमा’ लुटती पिटती, सारे जग में चर्चा है-
‘जंग कुतर्कों की’ होती है, देश के कुछ ‘रखवालों’ में ||
‘नयाय-शशक’ उलझा है देखो, ‘राजनीति के जालों में |
‘नीति हिरनियाँ’ फंसी तड़फतीं, ‘बहस’ के ‘बुरे बबालों’ मे ||३||
तुम ‘विकास के दीप’, ‘दीप’ पर, नित नव यहाँ जलाते हो |
‘जहाँ तहाँ’ से बटोर कर के, ‘नयी रोशनी’ लाते हो ||
‘न्यूआर्क,लन्दन, पेरिस, इटली’ सा देश बनाने को ||
‘फैशन’ के ‘फंडों पर फंडे’, रोज़ नये अपनाते हो ||
‘जिस्म’ नुमाइश’ बना के तुमने, उस से जी भर खेला है-
‘घटिया चाबी’ डाली तुमने, ‘गुप्त ज्ञान’ के तालों में ||
‘नयाय-शशक’ उलझा है देखो, ‘राजनीति के जालों में |
‘नीति हिरनियाँ’ फंसी तड़फतीं, ‘बहस’ के ‘बुरे बबालों’ मे ||४||
गीत ‘वासना’ ने जो गाया, उस को सुनने दिया है क्यों ?
‘नाच दिगम्बर’ और नाचने उस को तुमने दिया है क्यों ??
‘सेंसर का बेगोंन’ छिड़क कर, तुम ने उसे न मारा क्यों-
‘नग्नवाद की मकड़ी’ को यह ‘जाला’ बुनने दिया है क्यों ??
‘संयम के सागर’ में उठते, ‘काम’ के क्यों ‘तूफ़ान’ यहाँ-
‘भोगवाद के ज्वार’ पनपते, क्यों ‘लहरों के उछालों में ??
‘नयाय-शशक’ उलझा है देखो, ‘राजनीति के जालों में |
‘नीति हिरनियाँ’ फंसी तड़फतीं, ‘बहस’ के ‘बुरे बबालों’ मे ||५||
“प्रसून” की ‘पंखुडियों’ से जो उठती, ‘मन’ पर छाती थी |
कितनी ‘महक’ सुहानी, ‘भारत की बगिया’ से आती थी !!
‘दुराचार’ का नाम नहीं था, अटूट ‘बन्धन प्यार के’ थे-
और हमारे वतन की ‘गर्व’ से’ सदा फूलती ‘छाती’ थी ||
‘गरिमा’ भूल के ‘सच्चे प्रेम’ की, ‘तन-लोलुप कुछ लोगों’ ने-
‘धन’ से ‘रूप’ खरीदे, भोगे, अजब खेल ‘धनवालों’ के !!
‘नयाय-शशक’ उलझा है देखो, ‘राजनीति के जालों में |
‘नीति हिरनियाँ’ फंसी तड़फतीं, ‘बहस’ के ‘बुरे बबालों’ मे ||६||
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बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति संस्कार -सौदा /मोहन -मो./क्या एक कहे जा सकते हैं भागवत जी?