विवेकोर्मि (स्वामी विवेकानन्द पर आधारित एक अपूर्ण महाकाव्य )
>> Thursday, 24 January 2013 –
गीत(महिमागीत)
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सर्ग-२
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(विवेकानन्द-महिमा)
(तृतीय अन्विति)
(तृतीय अन्विति)
‘परतंत्रता’ बेडियाँ
बन कर, जकड़ रही थी ‘जनता’ को |
‘नीति विदेशी’, अजगर
बन कर, पकड़ रही ‘सज्जनता’ को ||
‘हिंसा का विषरस’
फैला कर, मिटा रही थी ‘समता’ को |
चारों और बिखेर रही
थी, ‘भेदों भरी विषमता’ को ||
सन्त विवेकानन्द देश
में, भरने ‘सजग चेतना-स्वर’-
‘पूर्ण बन्धन रहित मोक्ष का मार्ग’
बताने आये थे ||
‘मुक्ति-चिन्तन’ और ‘शाश्वत सत्य’
जताने आये थे |
‘माया-बन्धन’ काट के सब को, मुक्त
कराने आये थे ||
‘दास-वृत्ति-सन्ताप’-ताप को आप सिराने
आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||९||
राम, कृष्ण, चाणक्य, बुद्ध की महावीर
की नीति मिटी |
‘शाश्वत और चिरन्तन’ अपनी ‘आर्य-धर्म
की रीति’ मिटी ||
ईसा और मुहम्मद, नानक की ‘मानव हित
प्रीति’ मिटी |
‘ईश्वर के प्रति श्रद्धा’, सेवा, होकर
आशातीत मिटी ||
वे सिखलाने ‘धर्म-तत्व’ की बातें सुगढ
और सुर सुखकर-
‘उपेक्षितों’ को ‘सुमधुर, सुन्दर
प्यार’ लुटाने आये थे ||
अनाश्रितों को ‘आश्रय’ दे कर,उन्हें
उठाने आये थे |
टूट चुकी जो उनकी फिर से ‘शक्ति’
जुटाने आये थे ||
‘साहस’ पर जो ‘जंक’ लगी थी, उसे
छुटाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||१०||
‘घोर निराशा’ में डूबा ‘मानव-जीवन का हर
कोना’ |
देख ‘दुर्दशा भारत माँ की’, आता था सब को
रोना ||
हमें पड़ा, ‘अपनी संस्कृति की गरिमा रूपी
धन’ खोना |
क्योंकि ‘फ़िरंगी’ चाह रहे थे, यहाँ
‘दीनता-दुःख’ बोना ||
वीर विवेकानन्द विश्व में, बन् कर
‘आशुतोष शंकर’-
दुखीजनों को ‘सच्चे सुख का अर्थ’
बताने आये थे ||
क्योंकि ‘दरिद्रों’ में ‘नारायण’ समय
बिताने आये थे|
‘परम तोष की अंत:सलिला’ यहाँ बहाने
आये थे ||
‘पुण्य की पावन गंगा’ में वे यहाँ
नहाने थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||११||
‘परम चेतना’ पर ‘धुँधली सी परत बनी
जडता‘ व्यापी |
और ‘बुद्धि’ पर ‘अन्धकार’ की मची हुई
‘आपाधापी’ ||
‘म्लेच्छ,क्रूर, औ कुटिल मार’ से,
‘भारत की धरती’ काँपी |
‘आंगल शासक जन’ भारत के लिये बने थे
‘संतापी’ ||
‘पुण्य आत्मा’ और ‘महात्मा’, रुके
नहीं क्षण भर थककर-
‘परिवर्तन’ के ‘क्रान्ति-स्वरों’ की
‘तान’ सुनाने आये थे ||
‘गति की देवी’ रूठ गयी थी, उसे मनाने
आये थे |
रुकी हुई हर ‘प्रगति-सुगति को पुन:
बढाने आये थे ||
‘अज्ञानी मन’ को, ‘प्रज्ञा का पाठ’
पढाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||१२||
‘ ‘रुकना’,
‘मृत्यु’ समान, और है ‘चलते रहना’ ही ‘जीवन’ |
‘ ‘कर्मवीर’
‘कष्टों’ में ही करता है, ‘मन का अनुरन्जन’ ||
‘ ‘सुमन’
खिला करते ‘काँटों’ में, ‘दुख’ में ही भरते ‘प्रहसन’ |
‘ ‘वीराने’
में भर देते हैं, ‘धीर वीर’, ‘मीठे गुंजन’ ‘ ||
‘साहस’
भर कर, ‘निराश मन’ में, ऐसे ‘सौम्य वचन’ कह कर-
‘अमृत-रस’ की बौछारों से, ‘दर्द’
भुलाने आये थे ||
‘व्याकुलता’ को ‘गहरी मीठी नीद’
सुलाने आये थे |
‘परमानन्द रूप झूले’ में, हमें सुलाने
आये थे ||
‘दृष्टि समन्वय की’ लेकर के, इसे
बचाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||१३||