‘तसल्लियों के कोमल
कर’ से, ’पीडाओं’ को सहलाने |
हुये अनमने,
आर्त्तजनों को, ढारस देकर बहलाने ||
‘गहन रहस्यों के
सागर’ से ‘सुरस जीव्य रस’ भर लाने ||
‘उलझी उलझी हर
गुत्थी’ को, ‘विवेचना’ से सुलझाने |
‘नीरस मन जकी
मरुस्थली’ में, आये बन ‘रस का निर्झर’-
‘सब में ईश्वर का प्रभुत्व है’, बोध
कराने आये थे ||
‘पीडाओं के तन’ पर ‘स्नेहिल हाथ’
फिराने आये थे |
‘सब से बढ़ कर आत्मतत्व है’, गीत ये
गाने आये थे ||
‘घोर निराशा तम’ में’, ‘आशा-दीप’
जलाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||१४||
वे आये तो ‘मन की मैली कुवासना’ का अन्त हुआ |
‘दम्भी-कामी और पामरी उपासना’ का अन्त हुआ ||
‘शोषण मयविद्र्प्प्प घिनौनी कुभावना’ का अन्त हुआ |
‘काली विषमय नागिन जैसी कुकामाना’ का अन्त हुआ ||
क्योंकि लिये वे ‘सद्-आराधन’ का देने ‘अनुपम सद्वर’-
‘दम्भ-ज्ञान’ में वे ‘स्नेह रसधार’
बहाने आये थे ||
उस ‘धारा’ में ‘कई पातकी लोग’ नहाने
आये थे |
‘सुगम साधना’ से निखारने, मन चमकाने
आये थे ||
‘अन्तस्तल का धुँधला मुक्ताफल’ चमकाने
आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||१५||
‘चौराहों’
पर ‘शक्ति दानवी’, ‘कुपथ नाश का’ बता रही |
‘कैसे
बच कर निकलें’, सब को चिन्ता यह ही सता रही ||
‘इंसानों’
को ‘हैवानों’ सा ‘नाच घिनौना’ नचा रही |
‘कामकेलि’
के, ‘कुवासना’ के ‘खेल विश्रृंखल’ रचा रही ||
‘अग्नि
विकारों की’ थी जलने लगी स्वर्ग सी धरती पर-
वे ‘शीतलता की फुहार’ बन, ‘जलन’
बुझाने आये थे ||
‘आतप-झुलसे जन’ हित, ‘जल-घन’ बने,
रिझाने आये थे |
‘सब की सेवा में ही जीवन सुख’ समझाने
आये थे ||
‘सच्चा स्नेह-मार्ग क्या है यह’ हमें
सुझाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’
जगाने आये थे ||१६||