स्वच्छन्द-काव्य (गद्य-गीत / गद्य-कविता/अकविता)(१)डरावना सपना |
>> Saturday, 20 April 2013 –
अकविता
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रात मैने देखा अजीब सा सपना
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डराबना सपना !!
तालाब के किनारे नन्हीं
नन्हीं जोंकें थीं |
धीरे धीरे बड़ी होने लगीं |
उनके दो दो हाथ, दो दो पाँव
उग आये |
वे अपने पैरों पर खड़ी होने
लगीं ||
कुछ समय बाद-
उनके बड़े बड़े पेट निकल आये
|
सिरों पर उनके ‘टोपियाँ’ लग
गयीं |
रंग विरंगी ठाठाकेदार टोपियाँ
!
पीली-नीली-लाल |
सफ़ेद चिट्टी |
वे जोंकें हट्टी कट्टी ||
नीचे कुछ ‘मरियल शरीर’ पड़े
थे |
‘हड्डियों के ढाँचा’ मात्र
|
‘खाल के खोल’ उन पर मढ़े थे
|
न ‘खून’ न ‘मांस’ |
‘मरणासन्न अवस्था अन्तिम साँस’
||
फटी फटी आँखें-
जिनमें ‘इन्तकाम का जुनून’
|
पिया जा चुका था उनका सारा
खून ||
जोंकें ठट्ठा मार कर हँस
रही थीं |
सब परस्पर कह रही थीं-
“देख, मैने तुझ से अधिक खून
पिया |
मैने तुझ से अधिक ऐश में
जिया ||
मैं बनूँगी तुम सब का नेता
|
सब से अधिक योग्य जाहिर हूँ
|
‘खून पीने में’ सब से अधिक
माहिर हूँ ||
‘ मेरे सामने तुम्हारी ‘हैसियत’
क्या है ?
तुम्हारे ‘वजूद’ की ‘कैफ़ियत’
क्या है ??
मेरी तुमसे बड़ी ‘औकात’ है |
मेरी तुम से बड़ी ‘बात’ है
||
आपस में ‘रार’ बढ़ गयी |
‘कुत्तम पैजार’ बढ़ गयी ||
‘उठा-पटक’ होने लगी |
भीड़ धीरज खोने लगी ||
मेरी नींद टूट गयी |
‘सपना’ रह गया बस ‘सपना’ !
अधूरा सपना !!
आप इस ‘घटना’ को-
अपने ‘लेखों’ में सहेजना !
इस ‘सपने की ताबीर’ को-
मुझे लिख भेजना !!
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