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स्वच्छन्द-काव्य (गद्य-गीत / गद्य-कविता/अकविता)(१)डरावना सपना |



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रात मैने देखा अजीब सा सपना !
डराबना सपना !!
तालाब के किनारे नन्हीं नन्हीं जोंकें थीं |
धीरे धीरे बड़ी होने लगीं |
उनके दो दो हाथ, दो दो पाँव उग आये |
वे अपने पैरों पर खड़ी होने लगीं ||
कुछ समय बाद-
उनके बड़े बड़े पेट निकल आये |
सिरों पर उनके ‘टोपियाँ’ लग गयीं |
रंग विरंगी ठाठाकेदार टोपियाँ !
पीली-नीली-लाल |
सफ़ेद चिट्टी |
वे जोंकें हट्टी कट्टी ||
नीचे कुछ ‘मरियल शरीर’ पड़े थे |
‘हड्डियों के ढाँचा’ मात्र |
‘खाल के खोल’ उन पर मढ़े थे |
न ‘खून’ न ‘मांस’ |
‘मरणासन्न अवस्था अन्तिम साँस’ ||
फटी फटी आँखें-
जिनमें ‘इन्तकाम का जुनून’ |
पिया जा चुका था उनका सारा खून ||
जोंकें ठट्ठा मार कर हँस रही थीं |
सब परस्पर कह रही थीं-
“देख, मैने तुझ से अधिक खून पिया |
मैने तुझ से अधिक ऐश में जिया ||
मैं बनूँगी तुम सब का नेता |
सब से अधिक योग्य जाहिर हूँ |
‘खून पीने में’ सब से अधिक माहिर हूँ ||
‘ मेरे सामने तुम्हारी ‘हैसियत’ क्या है ?
तुम्हारे ‘वजूद’ की ‘कैफ़ियत’ क्या है ??
मेरी तुमसे बड़ी ‘औकात’ है |
मेरी तुम से बड़ी ‘बात’ है ||
आपस में ‘रार’ बढ़ गयी |
‘कुत्तम पैजार’ बढ़ गयी ||
‘उठा-पटक’ होने लगी |
भीड़ धीरज खोने लगी ||
मेरी नींद टूट गयी |
‘सपना’ रह गया बस ‘सपना’ !
अधूरा सपना !!
आप इस ‘घटना’ को-
 अपने ‘लेखों’ में सहेजना !
इस ‘सपने की ताबीर’ को-            
मुझे लिख भेजना !!
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
   
      

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