मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (च )घट-पर्णी (४)धर्म की ढपली
>> Tuesday, 6 November 2012 –
गीत (व्यंग्य-गीत)
(सारे चित्र,'गूगल-खोज' से साभार)
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‘राजनीति’
के जाल में उलझे, रहे ‘धर्म की ढपली’ पीट |
‘सन्त’
हैं जैसे, उलझें कोई, ‘घटपर्णी’ में, ‘उडते कीट’ ||
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‘वल्कल’ पहने ‘रंग विरंगे’, ‘गरीब’ दिखते, बड़े ‘अमीर’ |
‘प्रकट’ में खाते ‘काजू, किशमिश, पिश्ते, औ बादाम की खीर’ ||
‘परदे के पीछे’ खाते हैं, ये ‘अण्डे, मछली, औ मीट’ ||
सन्त’ हैं जैसे, उलझें कोई, ‘घटपर्णी’ में, ‘उडते कीट’ ||१||
‘भजन-कीर्तन’, ‘जप-तप’ करते, झूम झूम कर मस्ती में |
‘चरस की चिलम’ चढ़ा कर घूमें, ‘घर घर’ डोलें ‘बस्ती’ में ||
मन में भजते ‘लक्ष्मी-लक्ष्मी’, गाते ‘राम-नाम’ के गीत ||
सन्त’ हैं जैसे, उलझें कोई, ‘घटपर्णी’ में, ‘उडते कीट’ ||२||
कर के गठान ‘पार्टी’ अपनी, भद्दी करें ‘सियासत’ ये |
‘ऊँचे बंगलों’ में रह कर के, अपनी रचें ‘रियासत’ ये ||
‘अल्लाह,राम, हरी हर’ रटते, ‘सपनों’ में ‘संसद की सीट’ ||
सन्त’ हैं जैसे, उलझें कोई, ‘घटपर्णी’ में, ‘उडते कीट’ ||३||
बटोर के ‘धन’,चुनाव’ लड़ते, ‘रंग विरंगी चादर’ ओढ़ |
किसी ‘सियासी शहंशाह’ से, करते ‘पाखण्डी’, ‘गठजोड़’ ||
‘नाश’ देश का कर देंगे ये, गये चुनावों में यदि जीत ||
सन्त’ हैं जैसे, उलझें कोई, ‘घटपर्णी’ में, ‘उडते कीट’ ||४||
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